चिरकुँवारी का सपना

फाल्गुनी

Webdunia
ND
अल्लसुबह जब मैं उठना ना चाहूँ
तो आकर चूम ले वो मेरी पेशानी
उठकर फिर खोना चाहूँ
जब मैं
नींद क‍ी मखमली खुमारी में
तो
नटखट अठखेलियाँ करते हुए
मुझे सोने ही ना दे...

और जब...

नहीं कुछ नहीं,
जाने दीजिए
क्या करेंगें जानकर?

यह एक चिरकुँवारी का सपना है
इसे कहीं जब्त ही रहने दें
सपने की मधुरता को
अव्यक्त ही रहने दें।

यूँ भी नल की आवाज,
ऑफिस की हड़बड़ी और
जंगली चिड़‍िया की चहचहाहट में
कितने ही सपनों की चटखन
मैं कहाँ सुन पाती हूँ।

रोज बटोरती हूँ
सपनों की महीन किरचियाँ
रात होते-होते फिर भूल जाती हूँ
सुबह वही एक कुवाँरा अहसास
सुहागिन होकर जीती हूँ
हर रोज
एक कड़वा घूँट पीती हूँ ..!
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