तुमने कविताएं लिखीं कहानियां लिखीं उपन्यास लिखे और जानें क्या-क्या लिखें लेकिन तुम सीधे किसी में नहीं उतरे तुम्हारे अपने दर्द और उसमें समाए आसपास के सुख-दुख अनेक काल्पनिक स्रोतों में बहते रहे दूसरों की सुनते रहे, अपनी कहते रहे लोगों के मन पर उनका जो बेचैन प्रभाव पड़ता रहा वह यह सोचकर हलका हो जाता रहा कि अरे यह सब तो काल्पनिक है
लेकिन मुझमें तो तुम सीधे उतरे- अपने नंगे सत्य के साथ तुम्हारे भीतर कितना कुछ अनकहा रह गया था कितने ही छोटे-छोटे मर्म क्षण और भाव-स्पंदन यों ही चले जाते रहे उन सबको लिए-दिए आज मैं तुम्हारा आईना बन गई हूं लोग मुझमें तुम्हें देखते हैं तो पूछते हैं- अरे यह किसका चेहरा है लगता है- इसे पहले भी कहीं देखा है- लेकिन दूसरों के चेहरों में अरे सफल और अखंड-सा दिखने वाला यह आदमी इस दर्पण में तो एक ठेठ आदमी दिख रहा है गिरता हुआ, उठता हुआ टूटता हुआ, बनता हुआ हंसी में आंसू और आंसू में हंसी छिपाए हुए
मैं तुम्हारे निजीपन का दर्द अपने में कसे हुए परम प्रसन्न हूं कि लोगों ने तुम्हें एक ठेठ आदमी के रूप में जान लिया जिसने यहां तक पहुंचने के लिए कितनी ही टूटी पगडंडियों से यात्रा की है लेकिन तुमने मुझे दर्द के सिवा भी तो बहुत कुछ दिया है प्रकृति और मनुष्य की न जाने कितनी छवियां अपने में भरकर मुझमें व्याप्त हुए हो मैं पूनम की चांदनी-सी डहडहा रही हूं प्रभात की जीवन-रश्मियों में नहा रही हूं मुझमें पावस बरस रहा है झर झर झर झर वसंत की मदमस्त हवाएं फाग गा रही हैं कितने-कितने उत्सव मस्ती से हंस रहे हैं कितने-कितने रंगों के पल-पांखी उड़ रहे हैं कितने-कितने जाने-अनजाने लोग आ-जा रहे हैं मैं उल्लसित होती-होती थरथराने लगती हूं- पीडि़तों और बेबसों के लिए तुम्हारी संवेदना से लेकिन उस संवेदना से फूटती हुई ज्योति मुझमें एक उजास भर देती है लगता है दर्द में एक चाह चाह में एक राह फूट रही है
और एक दृष्टि-आलोक उसे दिशा दिखा रहा है वाह, कितना अच्छा लगता है कि लोगों की कुछ अच्छी रचनाओं की पंक्तियां भर दी है धूप के टुकड़ों-सी अपने प्रसन्न आस्वाद के साथ मैं चुपचाप वे पंक्तियां गुनगुनाया करती हूं और मैं कितनी सद्भाग्या हूं कि बैठी-बैठी तुम्हारे द्वारा की गई यात्राओं के साथ हो लेती हूं कितनी-कितनी भूमियों की अपनी-अपनी गंध मुझमें अंतर्व्याप्त हैं
यह अच्छा किया तुमने कि मुझ पर भारी-भारी फलसफों और गरिष्ठ सिद्धांत-चर्चाओं का बोझ नहीं लादा लादा होता तो मैं ठस हो गई होती और आलोचना ताना मारती कि मेरा ही काम करना था तो तू डायरी क्यों हुई री मैं भी चुप कहां रहती, कहती- मैं तेरे पास कहां गई थी री अभिमानिनी मेरे घर में तू ही बरजोरी से घुस आई है।