सारे टुकड़े जब बिखर जाते हैं...

- रश्मि भार्गव

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पीठ पर वजन है
हाथ दोनों बंधे हैं
और आपका पत्‍थर
मेरी तरफ ही उठा है

नदी बह रही है
अपनी आंखों में
हंसती हुई
हवा भी चल रही है
अपनी ही मुस्कुराहट में
फैलती हुई
बस यहीं से
मैंने नदी और हवा
बनना शुरू कर दिया है

पत्ते झर रहे हैं
झर-झर
फूलों का गुलदस्ता
महक रहा है
गुन-गुन करता
दिशा के कोने में नारंगी
सूरज दिल खोल रहा है
वहीं इस झर-झर
और
गुन-गुन
और खुलने के बीच के
अन्तर का
अहसास समझ आया है

मैं और तुम
ऊपर नीला आकाश
चहलकदमी करता हुआ
नीचे धरती बिछती हुई
तब भीगने का
बहुत मन किया

पत्थरों के साथ
जब चलते हैं
तो सख्त अहसास
उगते हैं
पहाड़ों की ऊंचाई
से टकराते हैं
तो ऊंचाई की
ओर कदम बढ़ाते हैं
जीवन से जब
आमना-सामना होता है
तभी जीवन की
विषमता से
मिलना होता है....
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