रुई का फाहा

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चेतना भाटी

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काली-चिकनी चौड़ी सड़क पर वह एक भटका हुआ रुई का फाहा था, जिसे घड़ीभर को भी चैन नहीं था। सड़क पर आते-जाते, सर्र-सपाटे से दौड़ते वाहनों के पीछे बेचैनी से इधर-उधर भागता-उड़ता, नाचता-घूमता।

एक गाड़ी इधर से निकली, वह हवा के दबाव में उधर ही दौड़ा-उड़ा। एक कार उधर से आई, वह हवा के प्रवाह में उधर ही बहा। कभी दोनों ओर से वाहनों के आने के कारण चकरघिन्नी हुआ गोल-गोल घूमने लगता। ऊपर उठता, नीचे गिरता, गोल-गोल घूमता, भागता, गर्ज यह कि सुकून नहीं पल भर को, आराम नहीं एक क्षण को, चैन की साँस ही न ले पाए बस दम फुलाता रहे हर दम, असुरक्षित-आतंकित पल-प्रति-पल।

ऐसे ही भागते-दौड़ते, उठते-गिरते वह सड़क के किनारे की मिट्टी में जा पड़ा। एक बार और फिर वहीं जमकर रह गया शांति और आराम के साथ।

' अपनी मिट्टी से जुड़े बिना चैन कहाँ? आराम कहाँ?'- पास ही बने आलीशान बंगले के भव्य टैरेस पर खड़े एनआरआई ने आह भरी।
उधर मिट्टी भी तो गीली थी।

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