मेट्रो कहानी : एकदा...

सिद्धार्थ झा
बात पुरानी है। किसी जमाने में किसी नगर में एक राजा को अच्छे-अच्छे घोड़े जमा करने का शौक था। उसके अस्तबल में एक से बढ़कर एक घोड़े थे। लोग दूर-दूर से आते और राजा के अस्तबल की तारीफ करते। किसी भी युद्ध और विपत्ति में घोड़ों ने अपना जी-जान लगा दिया था।
 
लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया, जब राजा बूढ़ा हो गया और राज्य की कमान पड़ोसी राज्य ने संभाल ली। उसको अस्तबल से कोई मतलब नहीं था लेकिन घोड़ों की तारीफ से उसको ईर्ष्या होने लगी।
 
उसको एक उपाय सूझा। उसने घोड़ों के बीच कुछ गधे बांध दिए। अब गधों की मौज ज्यादा थी। घोड़ों के मुकाबले काम कम और खुराक ज्यादा थी। घोड़े, गधों की खुराक में अपना और गधों का काम भी करते थे। कभी-कभी कुढ़ते भी थे। कुछ समझदार घोड़े अस्तबल से चुपचाप निकल लिए। गधे इठलाते हुए इधर-उधर घूमते जहां-तहां मुंह मारते फसलों को नुकसान पहुंचाते और जब कोई शिकायत करने पहुंचता तो सजा घोड़ों को सुनाई जाती।
 
इस बीच घोड़ों ने भी थोड़ा समझौता करते हुए वक्त को नियति माना और गधों के साथ प्रेमपूर्वक रहने की कोशिशें करने लगे। परिणामस्वरूप खच्चर भी पैदा हुए। ये नई नस्ल के थे और राजा को बहुत प्रिय थे व यूं कहें कि मुंहलगे थे। इस बीच 100 घोड़ों के अस्तबल में 150 से ज्यादा घोड़े-गधे थे। इससे व्यावहारिक दिक्कतें पैदा होने लगीं।
 
राजा ने फैसला किया कि क्यों न कुछ घोड़ों को निकाल दिया जाए। वैसे भी गधे थोड़े समझदार टाइप हो ही गए हैं, काम चल जाएगा। सबसे पहले कुछ बूढ़े और कुछ नेता टाइप घोड़ों को निकाला गया। जो बाकी बचे घोड़े थे उनके मन में दहशत हो गई। कुछ चालाक घोड़ों ने खच्चरों के हाथ-पैर जोड़े, उनकी अधीनता स्वीकार की जिससे कि वे राजा को उनके बारे में अच्छा-अच्छा बताएं ताकि उनका दाना-पानी चलता रहे।
 
बाहर से लोग अब भी अस्तबल देखने आते और राजा की बुद्धि की तारीफ करते। वाह राजन, क्या गधे पाले हैं, दिल खुश हो गया। कुछ डर से बोलते जबकि कुछ अपना गधा बेचने की नीयत से बोलते।
 
इस बीच राज्य में मुनादी हुई कि घोड़ों और गधों के बीच दौड़ होगी। जो भी जीतेगा उसको राज्य पशु का तमगा मिलेगा। निश्चित समय पर दौड़ शुरू हुई। घोड़ों और गधों ने पूरे दमखम के साथ दौड़ना शुरू किया। खच्चरों ने भी खास श्रेणी के तहत हिस्सा लिया लेकिन जीत खच्चरों की हुई। 
 
राजा ने फिर डपटा, 'काम के न काज के, दुश्मन अनाज के' ये कैसे हो गया? 
 
दरअसल, गधों के साथ रह-रहकर घोड़ों ने भी खुद को गधा समझना शुरू कर दिया था और दूसरी तरफ घोड़ों के मन में डर था कि कहीं राजा के प्रिय गधे, खच्चरों से हारे तो उनको अस्तबल से निकाल दिया जाएगा, क्योंकि खच्चर ये दुष्प्रचार दौड़ शुरू होने से पहले फैला चुके थे, क्योंकि गधे घोड़ों का साथ और राजा का विश्वास जीतकर कूटनीति करने में माहिर हो गए थे परिणामस्वरूप घोड़े जान-बूझकर हारे थे।
 
नतीजा कूटनीति काम आई। राजा ने सभी घोड़ों को फौरन अस्तबल खाली करने का आदेश दिया। अब वो अस्तबल ढेंचू-ढेंचू के शोर से गुलजार रहने लगा जिसको राजा अपनी जय-जय समझता था। घोड़ों को अपनी करनी का फल मिला, जो पहले ही गधों के साथ रहने को इंकार करते तो शायद ये नौबत नहीं आती।
 
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