कही-अनकही 7 : दिमाग का दही, दूध के जले....

अनन्या मिश्रा
'हमें लगता है समय बदल गया, लोग बदल गए, समाज परिपक्व हो चुका। हालांकि आज भी कई महिलाएं हैं जो किसी न किसी प्रकार की यंत्रणा सह रही हैं, और चुप हैं। किसी न किसी प्रकार से उनपर कोई न कोई अत्याचार हो रहा है चाहे मानसिक हो, शारीरिक हो या आर्थिक, जो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, क्योंकि शायद वह इतना 'आम' है कि उसके दर्द की कोई 'ख़ास' बात ही नहीं। प्रस्तुत है एक ऐसी ही 'कही-अनकही' सत्य घटनाओं की एक श्रृंखला। मेरा एक छोटा सा प्रयास, उन्हीं महिलाओं की आवाज़ बनने का, जो कभी स्वयं अपनी आवाज़ न उठा पाईं।'
एना को आज उसकी कॉलेज की दोस्त निम्मी मार्केट में मिल गई। दोनों मिल कर बहुत खुश हुईं और वहीं कॉफ़ी शॉप में बैठी हैं। 
 
‘निम्मी, बता क्या लेगी? कॉफ़ी या चाय?’
 
‘नहीं एना... मैं तेरे जैसे लेमन टी ही लूंगी... दूध नहीं पीती मैं अब...’
 
‘अरे? तू तो कॉलेज में चाय की बेहद शौक़ीन थी न? क्या हो गया?’
 
‘मन खट्टा हो गया... हाहाहा... तू अब भी नहीं पीती क्या दूध, एना?’
 
‘मुझे दूध पी कर घबराहट होती है... लेकिन तूने चाय कैसे छोड़ दी?’
 
‘यार... ससुराल में हर रोज़ दो लीटर दूध आता है... दिन में दो बार रिषभ के मम्मी-पापा, यानि सास-ससुर मेरे, रिषभ और मैं चाय पीते थे। फिर विकी हो गया, छोटा ही है... उसे दिन में तीन बार दूध पिलाते हैं . रात में फिर हम छह लोग फिर दूध पी कर सोते थे...’
 
‘तो चाय कैसे छोड़ दी?’
 
‘झगड़ा ये हुआ कि सास-ससुर को लगा कि सारा दूध मैं ही पी जाती हूं... उनका मानना है कि पहले भी 2 लीटर दूध ही आता था, सबके लिए काफी था । लेकिन जबसे मैं आई हूं इस घर में, सबको दूध कम पड़ने लगा है। मैंने रिषभ को हिसाब बताया... अब बताओ दिन में इतनी बार सभी को दूध लग रहा है, चाय बन रही है, तो दो लीटर तो लगेगा न? रिषभ ने बात करने की कोशिश की, लेकिन फिर झगड़ा इतना बढ़ गया कि मम्मी ने कहा की अब से मैं नहीं, वे चाय बनाएंगी, और ये तय हुआ कि मैं न तो उस घर में दूध पियूंगी, न चाय। उपवास रहेगा अगर तो मैं मेरे मायके जा कर चाय पी लूंगी ... तबसे मैंने चाय कॉफ़ी छोड़ ही दी है...’
 
‘कितना अजीब है न निम्मी... मेरे यहां बस आदि और मैं रहते हैं... दोनों ही न तो चाय पीते हैं, न दूध। कभी कोई आता है, तो आदि दूध खरीद लाता है चाय बनाने... कुछ दिन पहले उसकी एक रिश्तेदार आई एक-दो दिन के लिए हमारे साथ रहने। उनके लिए तो बेशक दूध था घर में। जाते वक़्त मुझे कह कर गईं, ‘तुम हमारे आदि का ख्याल नहीं रखती हो... उसे दूध तक नहीं पिलाती हो... हम तुम्हारी बड़ी सास से शिकायत करेंगे...’ 
 
‘शिकायत? तूने बताया नहीं कि दोनों पीते ही नहीं हो?’
 
‘बताया मैंने, कि न तो मैं चाय-दूध पीती हूं, न आदि । उन्होंने कहा कि तुम देती ही नहीं हो आदि को, इसलिए वो बेचारा नहीं पीता। खैर, मुझे लगा मजाक कर रही हैं लेकिन वाकई में अगले दिन बड़ी-सास ने फ़ोन कर डांटा मुझे। फिर मुझे लगा शायद मेरी गलती होगी, तो मैंने कहा आदि को कि शाम को दूध ले आए... पूरे किस्से से बेखबर वह बोला खुद तो पीती नहीं हो, फालतू मंगा लोगी और वेस्ट हो जाएगा... खैर उसे बताती भी, तो उसका तकियाकलाम है-इग्नोर करो, एना!’ कब तक इग्नोर करें लेकिन?’
 
‘अरे? तो जब यहां न तुझे दिक्कत है, न आदि को... तो रिश्तेदार कौन होते हैं फैसला लेने वाले कि तू आदि का ख्याल रखती है या नहीं?’
 
‘वैसे ही निम्मी, जैसे तेरे ससुराल में तुझे छोड़ कर सब चाय पिएं, ये सबको सही फैसला लगता है...’
 
‘हाहाहा... झगड़ा भले ही दूध का हो, मगर ये लोग दिमाग का दही करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे...’
 
कोई अपने परिवार के सदस्यों को खाने-पीने से कैसे रोक सकता है? इतनी घृणित मानसिकता दूध के जले लोगों की ही हो सकती है। इन ‘कही-अनकही’ बातों के दर्द से रीसते घावों को सहलाते हुए उस दिन एक साथ फिर चाय-कॉफ़ी का आनंद उठाया।
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