लघुकथा : 'कल्पना' और 'यथार्थ'

प्रज्ञा पाठक
एक दिन कल्पना ने अपने सुन्दर पंखों को  फड़फड़ाकर यथार्थ की ओर उपेक्षा भरी दृष्टि डालते हुए कहा-"तुम कितने असुंदर हो-सिर से पैर तक कठोरता के सिवाय कुछ भी नहीं। हमेशा ज़मीन में ऐसे नज़रें गड़ाये रहते हो मानो वहां से ऊपर उठना तुम्हें याद ही नहीं। ज़रा मुझे देखो,मैं कितनी सुन्दर हूं। मेरा अंग-प्रत्यंग कोमल है। मेरी उड़ान देखी है-आकाश के भी पार पहुंचाने वाली।"
 
यथार्थ मौन भाव से चलता रहा। कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। थोड़ी ही देर बाद कोमलांगी कल्पना हांफने लगी,गिरने-गिरने को हुई क्योंकि अब तक वह काफी उड़ान भर चुकी थी। तब यथार्थ ने अपने कठोर हाथों से उसे सहारा दिया और एक ही वाक्य कहा-"हवा में उड़ने वालों को भी आश्रय ज़मीन ही देती है।"
 
कल्पना लज्जावनत थी और अपने पंख समेटकर यथार्थ का अनुगामी बनने का निश्चय कर चुकी थी।

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