मार्मिक कहानी : छोटी मां

डॉ. साधना सुनील विवरेकर
आज न सुबह उठते ही स्नेहल के लिए टिफिन बनाने की जल्दी है, न ही सलिल को नाश्ता दे उनका टिफिन भेजना है, न ही सब कुछ जल्दी-जल्दी निपटाकर काम पर पहुंचने की मैराथन में दौड़ना है। आज रविवार जो है।
 
सुबह से ही एक अजीब सी शांति व सुकून का एहसास लिए दिन का श्रीगणेश होता है। रोज से हटकर रविवार की सुबह की सैर पर चिड़ियों की उदक-फुदक, पौधों पर खिले मौसमी फूलों की रंगत, पेड़ों पर कुछ देर विश्राम करते, फिर झुंड में उड़ते पक्षियों का पंख पसार आकाश की ओर प्रस्थान, तो ठंडी-ठंडी हवा के कभी धीमे-धीमे, तो कभी तेजी से बहते झोंके कितनी आत्मिक शांति व सुख की अनुभूति कराते हैं, यह हमारे सिवा कौन समझ सकता है? सलिल को भी रविवार की सुबह देर तक सोने की बजाय इन्हीं सब बातों में आनंद आता है। अत: अनेक मुद्दों पर एकमत न होने वाले हम दोनों के दिन की शुरुआत बड़े सामंजस्य से प्रकृति के सान्निध्य में होती है। सैर से लौटकर लॉन में साथ बैठ मैंने कॉफी की चुस्कियों के साथ अखबार का आनंद लिया, फिर सलिल बगीचे में माली के साथ लग गए व मैं कलाबाई के साथ घर की सफाई में।

 
फोन की घनघनाहट ने ध्यान बंटाया व अपने हाथ की लंबी झाडू कलाबाई को थमाते मैंने फोन उठाया। दूसरी तरफ 'छोटी मां' थी। सामान्य हालचाल पूछने के बाद सीधा आदेश, 'स्नेहल को फोन दे'।
 
मैंने कहां वह सो रही है, उठते ही बात कराती हुं। फिर कहा, छोटी मां जब हम छोटे थे, आप हो या आई, देर से उठो तो चिल्लाती थी, 'क्या 8-8 बजे तक सोते हो' अब बच्चों को डांटते वक्त कहना पड़ता है, 'क्या 12-12 बजे तक सोते हो'?

 
खैर स्नेहल की बात और है। हाउस जॉब कर रही है। डेढ़ दिन की ड्यूटी के बाद जब घर लौटती है, तो थककर चूर रहती है। रातभर पेशेंट्स की देखभाल फिर 'गाइनी' में पोस्टिंग हो तो कभी-कभी एक पल भी आराम नसीब नहीं होता, पर यह सब उसने अपनी मर्जी से चुना है। पेशेंट्स का दर्द वह दिल से महसूस करती है। उनकी तकलीफों को सुनाते समय उसकी आंखों की नमी मुझे उसकी भावुकता का एहसास करा ही देती है।
 
कलाबाई के साथ हाथ घर को व्यवस्थित कर रहे थे, पर दिल अतीत में गोते लगा रहा था। छोटी मां काकी की शादी में मैं मात्र डेढ़ साल की थी, तब ऐन वक्त पर बाबा को जॉन्डिस हो गया अत: मजबूरन आई-बाबा का नागपुर शादी में जाना संभव नहीं हुआ था, पर दादा-दादी मुझे ले गए थे व लौटते में मैं पूरे रास्ते काकी की गोद में ही सोते आई थी, ऐसा दादी हमेशा बताया करतीं।

 
काकी की शादी के मात्र 10 माह बाद भैया का जन्म हुआ था व आई उसे ही संभालने में लगी रहतीं, अत: काकी ही मेरे को लाड़ करती व मेरा पूरा ध्यान रखती। भैया 10 माह का था, तब आई को टाइफाइड हुआ व काकी को नन्ही बिटिया। कमजोरी व बीमारी की वजह से आई बेटे को तृप्त करने में अक्षम थी, तब काकी ने बड़ी सहजता से भैया को आंचल में छुपा बड़ी उदारता से अपनी बेटी का अधिकार उसे दे दिया था। इस आत्मीयता से वे कब काकी से 'छोटी मां' बन गईं, पता ही नहीं चला।

 
संयुक्त परिवार में पलते-बढ़ते रिश्तों का घेरा भी बढ़ता गया। बुआओं की शादियां हुईं, पर गर्मियों की छुटिट्यों में जब वे अपने बच्चों के साथ मायके आतीं तब घर में कितने लोग हैं, किसका बच्चा कहां खेल रहा है, कौन नहाया व कौन नहीं, सबका हिसाब लगाना मुश्किल होता। दादी के नेतृत्व में आई, छोटी मां, बुआएं सब मिलकर काम निपटातीं। पहले बच्चों की, फिर दादाजी के साथ बाबा, काका, फूफा की पंगत बैठती और अंत में जब घर की बहू-बेटियां खाना खाने बैठतीं तो कभी नई सब्जी, तो कभी बेसन में बघार लगातीं व उनकी सौंधी खुशबू से हम में से किसी न किसी को फिर भूख लगती व अपनी-अपनी आई की थाली में बैठ फिर खाना शुरू होता तब रोटी कम पड़ जाए तो छोटी मां आधे खाने में से उठ गरम-गरम फुल्के उतारतीं।

 
खूब घी लगे फुल्कों से मिली तृप्ति की अनुभूति फिर कभी नसीब ही नहीं हुई। समय के साथ काकी और दो बेटियों की मां बनीं। बेटे की कमी न कभी काकी की बातों से झलकी, न चेहरे से। काका ने भी सदा अपनी सुंदर-सुंदर बेटियों को भरपूर लाड़-प्यार के साथ उच्च शिक्षा दिलवाई। बुआएं भी जहां उस जमाने में एमए, एमएससी व डॉक्टर बनी थीं, नौकरियां कर रही थीं, तो हमारी पढ़ाई को दोयम समझने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था।
 
माली के साथ सलिल का काम पूर्ण हो गया था। पूछा, 'नाश्ता तैयार है क्या?' अर्थात 10 बज गए। मैंने जल्दी से पोहे बघारे।

 
सलिल ने पोहे पर नींबू निचोड़ते पूछा, 'फोन किसका था?' इतने में स्नेहल भी सीढ़िया उतरकर आई। मैंने उसे छोटी मां से फोन पर बात करने को कहा व सलिल के साथ गप्पों में उलझ गई। नहा-धोकर पूजा में बैठी तो यादों का कारवां फिर साथ हो लिया।
 
नौवीं कक्षा में 'विषय कौन से लेना है, कौन सी फ्रॉक कब अच्छी लगेगी, सलवार सूट खरीदूं या बेलबॉटम सिलवाऊं?' की दुविधा हो या सत्ता में इस साल कौन सी पार्टी जीतेगी का मुद्दा, किसी पिक्चर की कहानी किस मूल कथा पर आधारित है या किसी मूवी का डायरेक्टर कौन है, किस गीत का गीतकार-संगीतकार कौन है या उसे गाया किसने? इत्यादि सारी जानकारी छोटी मां को रहती व हमारे झगड़ों व बहसों का अंतिम न्याय उन्हीं के द्वारा होता।

 
छोटी मां शादी के समय एमए संस्कृत में गोल्ड मेडलिस्ट थीं व काका हिन्दी में एमए तथा प्रोफेसर। उनके आंखों की कमजोर रोशनी की वजह से उनके सारे कामों में छोटी मां मदद करतीं, हिन्दी के व्याख्यान तैयार करतीं व उन्हें सुनातीं। यहां तक कि यूनिवर्सिटी के पेपर भी पढ़कर सुनातीं व काका के बताए अनुसार मार्क्स देतीं। फिर उन्होंने भी एमए हिन्दी में कर लिया व मेरिट लिस्ट में द्वितीय स्थान प्राप्त किया।

 
सास-ससुर, छोटी-छोटी 3 बेटियों व संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए उन्होंने स्कूल की नौकरी भी पकड़ ली। इतना सब करते हुए छोटी मां सदैव प्रसन्नचित व उत्साह से हर किसी की मदद को सदा तैयार दिखतीं। स्कूल से घर तक की 5 किमी की दूरी भी रोज तेज गति से पैदल चल तय करतीं व शाम को घर लौटने पर भी थोड़ा सुस्ता काका के साथ साहित्यिक सम्मेलनों, चर्चाओं में भाग लेने उनका हाथ थामे खुशी-खुशी जातीं।

 
मुझे लगता, जहां ईश्वर ने काका से बचपन में लगी किसी चोट की वजह से आंखों की रोशनी धुंधली कर दी थी, जो प्रतिवर्ष और धुंधलाती जा रही थी, वहीं काकी जैसी सशक्त, सहनशील व उदारमना स्त्री का पत्नी के रूप में में साथ दे उन्हें उपकृत भी कर दिया था। काका भी कम विद्वान नहीं हैं। पूरी रामायण उन्हें कंठस्थ है। प्रतिदिन नहाने के बाद रामायण को छूकर बिना देखे अगली 4-6 दोहे व चौपाई गाकर ही उनकी दिनचर्या प्रारंभ होती है। विभिन्न प्रसंगों पर बातों ही बातों में दोहे व चौपाई से उदाहरण दे वे महफिल में जान ला देते हैं। किस्मत ने उनकी आंखों से रंगों की छटा को भले ही दूर कर दिया हो, वे अपने हाथों से छूकर सबसे पूछकर हर वस्तु की अनुभूति कर ही लेते हैं, फिर वह किसी की सुंदर साड़ी हो या गहना, घड़ी हो या घर।

 
मुझे याद है, जब हमारा नया घर बन रहा था तो उन्होंने इच्छा प्रकट की, 'मुझे तेरा घर कैसा बन रहा है, देखना है।'
 
यह जानते हुए भी कि उन्हें कुछ नहीं दिखेगा, मैं उनका मन रखने उन्हें कार से ले गई। उन्होंने ईंट-पत्थरों, मलबे व सरियों के ढेर में से भी हर कमरे में घुसकर, दीवारों को छूकर खिड़कियों व दरवाजों को टटोलकर हर कमरे की लंबाई-चौड़ाई व पूरे घर को समझ लिया। बाद में सबको वर्णन कर चौंका भी दिया।

 
सलिल ने आवाज लगाई, 'पेपर वाला आया है, पेमेंट कर दो'। मैंने जल्दी-जल्दी आरती समाप्त की व पूजाघर से बाहर आ पेपर वाले को पैसे दिए और खाना बनाने किचन में घुसी। कुकर लगाया, सब्जी काटते-काटते मन फिर छोटी मां के पास पहुंच गया। हर सब्जी को अलग-अलग तरह से बनाना मैंने छोटी मां से ही सीखा था। किस सब्जी के छिल्के में कौन सा विटामिन है, किस दाल में प्रोटीन अधिक है, ये सब कुछ हमेशा बतातीं। काका व छोटी मां जैसा प्रसन्नचित, हर चीज में खुशी ढूंढने व स्वयं की इतनी बड़ी कमी का रोना रोते बैठने की जगह जिंदगी का हर पल सार्थक करने वाला जोड़ा बिरला ही होता है।

 
उस जमाने में जब बेटे का होना कुछ अधिक ही महत्व रखता था, बेटा न होने का अंशमात्र भी गम दिल में न रखते हुए उन्होंने बेटियों की लाड़-प्यार से परवरिश करते हुए उन्हें उच्च शिक्षा दिलवाई। बेटियों की शादी के वक्त भी जहां प्राय: घरों में चिंता व तनाव होता है, काका हंसकर कहते, 'अरे बेटी के पिता के सामने तो सारे ऑप्शन खुले होते हैं वह चाहे तो राष्ट्रपति से भी बेटी के रिश्ते की बात चला सकता है और जब जोड़े ईश्वर ही तय करता है तो हमें चिंता करने की जरूरत ही क्या?' और हुआ भी वही। सुंदर, उच्च शिक्षित व संस्कारों से भरपूर होने से तीनों को एक से बढ़कर एक घर-वर मिला व उस पर सौभाग्य कि तीनों जंवाई, बेटों-सा व्यवहार कर उनके आड़े वक्त दौड़े चले आते हैं। पिछले वर्ष ही बड़ी बेटी ने छुट्टी लेकर 1 माह में उनका घर रिनोवेट करवाया व तब तक शहर में ही ब्याही छोटी बेटी ने उन्हें अपने घर रखा।

 
इस साल छोटी मां की 75वीं सालगिरह व उनकी शादी की 51वीं सालगिरह का जश्न तीनों बेटियों ने मिलकर होटल में पार्टी रख मनाया। सारे रिश्तेदारों व दोस्तों को बुलाकर स्लाइड शो के जरिए पुरानी यादें ताजा कीं।
 
स्नेहल के जन्म के समय भी छोटी मां ने आई को घर का कामकाज देखने की सलाह देते हुए स्वयं 5 रातें मेरे साथ अस्पताल में गुजारीं। जीवन में एक नहीं, हजारों मौके ऐसे आए, जब छोटी मां ने अपने रिश्तेदारों की मदद की। स्वयं तकलीफ सहन कर दूसरों के लिए सदा स्वयं को प्रस्तुत किया। जायदाद का बंटवारा हो या जिम्मेदारियों का वहन- उन्होंने सदा बड़प्पन व उदारता दिखाई व नि:स्वार्थ भाव से अपने कर्तव्य निभाए।

 
समय के क्रूर हाथों ने जब आई व बाबा को मुझसे मात्र 6 माह के अंतराल से छीन लिया तो उन्हीं की गोद ने मुझे आसरा दिया। घर में कोई परेशानी हो, कोई कशमकश हो, बड़ी स्पष्टवादिता के साथ वे अपना मत मांगने पर दे देती हैं।
 
बेटे की शादी का जश्न मनाते समय जब-जब मैं आई-बाबा के लिए उदास हुईं तो उनके व्यक्तित्व, सहारे व सलाह ने आंखों से निकलने वाले आंसुओं को बहने से पहले ही रोक दिया। कुछ समय से छोटी मां बीमार चल रही हैं। स्लिप डिस्क व उच्च रक्तचाप की वजह से परेशान हैं। काका को डायबिटीज है, जो बरसों से छोटी मां के अनुशासन की वजह से नियंत्रण में है, पर वे कभी कम बोलते हैं तो 6-6 महीने मौन हो जाते हैं, तो कभी-कभी इतना अधिक बोलते हैं कि उनका उत्साह विचलित कर देता है।

 
8 दिन पूर्व ही छोटी मां से मिली थीं तो वे कहने लगीं, 'अक्सर औरतें सुहागन रहने के लिए व्रत करती थीं, पर मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि इनकी जिम्मेदारी निभाकर ही मुझे तेरे पास बुलाना, मैं पहले आ नहीं पाऊंगी।'
 
उनका यह उद्बोधन सुनकर मैं अंदर से हिल गई थी। मेरे रोंगटे खड़े हो गए व मैं छोटी मां के इस रूप के आगे मन ही मन नतमस्तक हो गई थी।
 
स्नेहल को काम करते-करते याद दिलाया, 'छोटी मां से बात की?'

 
'सलिल ने धीरे से कहा, 'पन्द्रह मिनट पहले ही छोटी मां ने स्नेहल से बात की है, पर वह तब से न जाने क्यों अपसेट है। तुम पूछो क्या बात है?'
 
कमरे का दरवाजा खोल स्नेहल से पूछा, 'क्या हुआ?'
 
स्नेहल ने नम आंखों को पोंछते हुए बताया कि छोटी मां कह रही थीं, 'तेरे कॉलेज में पूछकर बताना कि देहदान करने के लिए कौन से फॉर्म भरने होते हैं? मैं व तेरे काका आजोबा अपना-अपना देहदान करना चाहते हैं। यह भी पूछना कि हम शरीर का हर अंग व स्किन भी दान देना चाहते हैं, उसके लिए क्या कार्रवाई करनी होगी? तू ही पूरी कार्रवाई के बारे में पता लगाना व सब तुझे ही करना है। और हां, नेत्रदान मेरा तो मैं पहले ही कर चुकी हूं, उसके फॉर्म्स भी तुझे दे दूंगी संभालकर रखना। हमारे जाने के बाद हो सकता है किसी को उस वक्त यह सब करने का भान न रहे, पर डॉक्टर होने के नाते मैं यह जिम्मेदारी तुझे सौंप रही हूं। और मुझे विश्वास है कि तू यह काम बड़ी जिम्मेदारी से करेगी, क्योंकि इसकी अहमियत तुझसे अच्छी तरह कौन समझ सकता है? इस काम को कल ही करना।

 
फिर उन्होंने पूछा, 'आज तेरी आई क्या बना रही है? कुछ अच्छा खाने का बड़ा मन है'।
 
स्नेहल कह रही थी, 'आई, आज समझी हूं कि तुम सब छोटी मां का इतना आदर क्यों करते हों? वे कह रही थीं, 'मुझे वह लकड़ियों के बीच रखकर खुद के शरीर को राख बनाना बिलकुल पसंद नहीं, न ही जाने के बाद फालतू के रीति-रिवाजों में अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई को यूं खर्च करना। सभी संपन्न हैं, पर उन संस्कारों में लगने वाले पैसे से किसी गरीब की बेटी का ब्याह कर देना या किसी की बेटी की शिक्षा का खर्च उठाना। मैं एफडी तेरे नाम कर रही हूं।'

 
अपनी नम आंखों को पोंछने की बारी मेरी थी। पर मैंने खुद से कहा, 'शाम को दही-बड़े लेकर छोटी मां के यहां जाऊंगी!'

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