आज के बूफे के दौर से कुछ वर्षों पीछे जाकर यदि सोच सकें तो सहभोज की पंगत याद कर लीजिए.....।
जी हां... पंगत की याद आते ही आपको याद आ जाऐंगे पत्तल- दोने...।.बस...! मैं वही खाखरे का वृक्ष हूं, जो पत्तल-दोने के लिए पत्ते देता हूं..। मैं छोटे-बड़े दोनों ही रुप में मिल जाता हूं..।तेज गर्मी, पथरीला इलाका जो भी हो,मुझे विचलित नहीं करते...। पता है...?गाय और अन्य जानवर भी मेरे पत्ते नहीं खाते..,तभी तो मैं हरा भरा ही बना रहता हूं.।
गावों के लिए तो आज भी मेरी उपयोगिता है....लेकिन शहरी इलाके तो मुझे भूलते ही जा रहे हैं...,यही मेरी पीड़ा है...।
तो जब महानगर उन्नति/प्रगति की बात करते हैं तो मै यही चाहूं गा कि भोजन के लिए डिस्पोजेबल की जगह पुनः मेरे पत्तों के पत्तल-दोने चलन में आ जाएं... ताकि पर्यावरण व पृथ्वी, दोनों की रक्षा हो सके..।
हर वृक्ष की व्यथा होती है कि मुझे मत उखाड़ो...मुझे मत नोचो..मुझे मत तोड़ो...
मगर मैं कहता हूं., आओ....मुझे तोड़ लो...मेरे पत्ते ले जाओ....परमार्थ का मेरा यही भाव है....।