गीता सार : 2. इन्द्रियां, मन और बुद्धि- 10

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- अनिल विद्यालंकार

भारतीय दर्शन की सामान्य अवधारणा के साथ गीता भी मानती है कि मनुष्य के पास 5 ज्ञानेन्द्रियां और 5 कर्मेन्द्रियां हैं।


 


ज्ञानेन्द्रियां हैं- रूप, शब्द, गंध, स्पर्श और रस की और कर्मेन्द्रियां हैं- हाथ, पैर, वाणी, मल विसर्जन और प्रजनन की इन्द्रियां

मन को 11वीं इन्द्रिय माना जाता है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच नियामक का काम करता है। ये इन्द्रियां और मन हमारे ज्ञान और कर्म के साधन मात्र न होकर इस संसार को भोगने के भी साधन हैं। संसार का सुख भोगने में मन विचार और कल्पना के द्वारा भी सहायता करता है।

मनुष्य का मन संसार की सबसे अशांत चीज है। इस अशांति के कारण ही मनुष्य संसार में अपनी इच्छाओं की पूर्ति के साधनों की तलाश में भटकता रहता है। लेकिन जैसे ही मनुष्य को अपनी इच्छा की एक वस्तु मिलती है उसका अशांत मन तुरंत किसी दूसरी चीज की तलाश में दौड़ने लगता है।

अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए यह दौड़-भाग मनुष्य के जीवन के अंत तक चलती रहती है। गीता में बताए गए योग का एक प्रमुख उद्देश्य अशांत मन पर नियंत्रण करना है। गीता हमसे इन्द्रियों के भोगों को छोड़ने के लिए नहीं कहती। गीता का उपदेश है कि हमें मन पर नियंत्रण रखते हुए इन्द्रियों के विषयों का भोग करना चाहिए।
 
मन का एक प्रमुख काम भाषा और विचार को जन्म देना है। मन और भाषा सदा साथ-साथ रहते हैं। जब तक मनुष्य के मस्तिष्क में मन सक्रिय है, भाषा का जन्म होगा ही। यदि हम चिंतन की भी भाषा को मिलाकर देखें तो पाएंगे कि हमारी भाषा का 99 प्रतिशत से ज्यादा अनावश्यक है। यह अनावश्यक भाषा स्पष्टता लाने के बजाय भ्रांति ही अधिक पैदा करती है।

गीता का कहना है कि मनुष्य को शब्दों के ऊपर उठना है। इनमें धार्मिक ग्रंथों के शब्द भी शामिल हैं। बुद्धि का स्थान मन के ऊपर है। बुद्धि की अवस्था पर भाषा का कार्य समाप्त हो जाता है, क्योंकि उस अवस्था में मनुष्य शब्दों के व्यवधान के बिना सत्य का सीधा साक्षात्कार करता है।

यदि हम मन की सीमा को जानकर उसके ऊपर उठ सकें तो हम बुद्धि की अवस्था पर पहुंच सकते हैं। 

जारी... 
 

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