न होते राम, तो न होती दिवाली?

Webdunia
शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014 (15:24 IST)
- विष्णु भट्ट 
 
यह सर्वविदित है कि रामायणकाल में जब भगवान श्रीराम अपनी 14 वर्षीय वनवास की अवधि पूर्ण कर सकुशल अयोध्या लौट आए तो अयोध्यावासी अति प्रसन्न हुए।


 
अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए उन्होंने पूरी अयोध्या नगरी को घी के दीपक जलाकर दीपमाला से सजाया और पूरी अयोध्या में प्रकाश फैलाया, तभी से दिवाली पर्व मनाया जाने लगा, तभी से यह पर्व पारंपरिक पर्व बन गया और हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से लगाकर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तक पंच दिवसीय पर्व मनाने लग गए।
 
पहला दिन त्रयोदशी को धनतेरस, दूसरा दिन चतुर्दशी को रूप चौदस, तीसरा दिन अमावस्या को महालक्ष्मी पूजन, चौथा दिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा और खेंखरा-अन्नकूट तथा पांचवां दिन द्वितीया को भाईदूज या यम द्वितीया के लिए निश्चित किए गए। 
 
अक्सर यह यक्षप्रश्न उभकर सामने आ जाता है कि- 'यदि राम न होते तो क्या दिवाली का पर्व भी होता?' इस प्रश्न का उत्तर सबसे पहले हमें श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश के दौरान कहे गए इन शब्दों में ध्वनित होता है-
 
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम्‌ धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम॥
परित्राणाय साधुनां, विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे॥ 
 
अर्थात- हे अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब धर्म के अभ्युत्थान के लिए, साधुओं के परित्राण के लिए और दुष्टात्माओं के विनाश के लिए मैं अवतार लिया करता हूं।
 
इसी तरह का मिलता-जुलता कथन तुलसीकृत रामचरित मानस में 'बालकांड' के अंतर्गत 'शिव-पार्वती' संवाद में मिलता है। यथा-
 
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए।
विपुल निसद निगमागम गाए।।
हरि अवतार हेतु जे हि होई।
इद मित्थं कहिजाइ न सोई॥ 
राम अतर्क्य बुद्धि मनबानी।
मत हमार अस सुनाहि सयानी।।
तदपि संत मुनि वेद पुराना।
जस कुछ कहहिं स्वमति अनुमाना॥ 
तस मैं सुमखि सुनावऊं तोही।
समुझि परइ जस कारन मोही। 
जब-जब होइ धरम कै हानी।
बाढ़हिं असुर उधम अभिमानी॥ 
करहिं अनीति जाई नहिं बरनी। 
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥ 
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥ 

 
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