अमरनाथ की अमर गाथा

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- सुरेश डुग्गर
कुछ इसे स्वर्ग की प्राप्ति का रास्ता बताते हैं तो कुछ मोक्ष प्राप्ति का। लेकिन यह सच है कि अमरनाथ, अमरेश्वर आदि के नामों से विख्यात भगवान शिव के स्वयंभू शिवलिंगम के दर्शन, जो हिम से प्रत्येक पूर्णमासी को अपने पूर्ण आकार में होता है, अपने आप में दिल को सकून देने वाले होते हैं, क्योंकि इतनी लंबी यात्रा करना तथा अनेक बाधाओं को पार करके अमरनाथ गुफा तक पहुँचना कोई आसान कार्य नहीं है। इसलिए प्रत्येक यात्री जो गुफा के भीतर हिमलिंगम के दर्शन करता है अपने आप को धन्य पाता है और बहुत ही भाग्यशाली समझता है, क्योंकि कई तो खड़ी चढ़ाइयों को देखकर ही वापस मुड़ जाते हैं आधे रास्ते से।
प्रत्येक वर्ष श्रावण पूर्णिमा के दिन, जिस दिन देशभर में रक्षाबंधन का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है उसी दिन अमरनाथ की गुफा में भगवान शिव के स्वयंभू हिमलिंगम के दर्शनों के लिए हजारों यात्री एकत्र होते हैं। यह गुफा राज्य के राजधानी शहर श्रीनगर तथा जम्मू से क्रमशः 140 तथा 326 किमी की दूरी पर तथा समुद्रतल से 13500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। अमरनाथ गुफा में हिमलिंग के दर्शनों के सम सारी कश्मीर घाटी में किसी समय 'ओम नमः शिवाय' तथा 'बाबा अमरनाथ की जय' के उद्घोष की गूँज रहती थी, लेकिन आज ऐसा नहीं होता है आतंकवादी गतिविधियों के कारण।
 
छड़ी मुबारक : यह यात्रा 'छड़ी मुबारक' के साथ चलती है, जिसमें यात्री एक बहुत बड़े जुलूस के रूप में अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। इसमें अनगिनत साधु भी होते हैं जो अपने हाथों में त्रिशूल और डमरू उठाए 'बम बम भोले तथा जयकारा वीर बजरंगी- हर हर महादेव' के नारे लगाते हुए बड़ी श्रद्धा तथा भक्ति के साथ आगे-आगे चलते हैं।
 
'छडी मुबारक' हमेशा श्रीनगर के दशनामी अखाड़ा से कई सौ साधुओं के एक जुलूस के रूप में 140 किमी की विपथ यात्रा पर रवाना होती थी, जिसका प्रथम पड़ाव पम्पोर, दूसरा पड़ाव बिजबिहारा में और अनंतनाग में दिन को विश्राम करने के बाद सायं को मटन की ओर रवाना होकर रात का विश्राम करके दूसरे दिन प्रातः एशमुकाम की ओर चल पड़ती थी। जबसे आकंतवाद की काली छाया कश्मीर पर पड़ी है तभी से 'छड़ी मुबारक' की शुरुआत जम्मू से की जाती रही है और दशनामी अखाड़ा तथा अन्य पड़ावों पर इसके विश्राम मात्र औपचारिकता बन गए थे, लेकिन गत वर्ष से यह पुनः अपनी पुरानी परंपरा के मुताबिक चल रही है। पहले यह छड़ी पहलगाम पहुँचकर दो दिन विश्राम करती थी, जहाँ से हजारों की संख्या में यात्री इसके साथ गुफा की यात्रा के लिए आगे बढ़ते थे, लेकिन अब यह पहलगाम में इतने देर नहीं रुकती, बल्कि आज यात्री छड़ी से पहले ही अपनी यात्रा आरंभ करके वापस भी लौट आते हैं जब तक कि यह छड़ी गुफा तक पहुँचती है।
 
यात्रा का आरंभ : प्रकृति की गोद में बसे पहलगाम से इसकी शुरुआत होती है और कोई-कोई जो संपन्न होता है यात्रा खच्चरों पर करता है, जबकि बाकी लोग पैदल ही यह यात्रा करते हैं। कहा जाता है कि पहलगाम से पवित्र गुफा तक का मार्ग संसार की सुंदरतम पर्वतमालाओं का मार्ग है जो अक्षरशः सत्य है। इसमें हिमानी घाटियाँ, ऊँचाई से गिरते जलप्रपात, बर्फ से ढँके सरोवर, उनसे निकलती सरिताएँ, फिर उन्हें पार करने के लिए प्रकृति द्वारा निर्मित बर्फ के पुल। सब मिलकर प्रकृति का ऐसा अद्भुत खेल प्रकट करते हैं कि मानव इन सब को मंत्रमुग्ध होकर देखता है और प्रकृति की गोद में विचरता हुआ, मनमोहक प्राकृतिक छटा का आनंद पाता है और वातावरण में अजीब सी शांति महसूस करता है।
 
अठखेलियाँ करती लिद्दर नदी के किनारे बसा एक छोटा सा कस्बा पहलगाम के नाम से जाना जाता है। इस कस्बे में ठहरने के लिए सरकारी आरामगाह तथा होटल कभी हुआ करते थे, लेकिन आज आतंकवाद सब कुछ लील गया है। यहीं से यात्रा के लिए आवश्यक उचित सामान मूल्य या किराए पर मिल जाता है। यात्रियों को यात्रा के लिए भारी ऊनी कपड़े, मंकी कैप, बरसाती, छाते, छड़ी, टॉर्च, मोमबत्ती, पोलिथीन के बैग तथा थर्मस रखना आवश्यक है। टेण्टों, खच्चर, पालकी तथा पिट्ठू का इंतजाम भी यहीं से हो जाता है, जिनका सरकारी तौर पर दाम होता है। वैसे तो रास्ते में स्वयंसेवी संगठनों द्वारा लंगर लगाए गए होते हैं फिर भी यात्रियों को अपने साथ कुछ जलपान का सामन ले जाना चाहिए।
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