गीता सार : मन, भाषा और परमात्मा- 8

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- अनिल विद्यालंकार

मनुष्य का अधिकतम चेतन जीवन मन के स्तर तक सीमित है। मन का एक प्रमुख काम भाषा को जन्म देना है। आम व्यक्ति का मस्तिष्क हर समय अनियंत्रित विचारों के रूप में भाषा पैदा करता रहता है। मनुष्य कभी-कभी अपने चिंतन को बंद करके अपने मन और मस्तिष्क को शांत करना चाहता है, पर इसमें उसे प्राय: सफलता नहीं मिलती। शब्दों के कोहरे के परे न देख पाने के कारण मनुष्य अपने जीवन में उन शब्दों से निर्देशित होता रहता है, जो उसे अपने परिवार, समाज, शिक्षा तथा राजनीतिक और धार्मिक वर्गों से मिले हैं।

उसका जीवन कुछ विश्वासों, सिद्धांतों और विचारधाराओं तक सीमित रहता है और वह उनके परे जाने की बात सोच भी नहीं सकता। ऐसी दशा में रहने वाला व्यक्ति अंतिम सत्य को नहीं जान सकता, क्योंकि अंतिम सत्य शब्दों से परे है। केवल भाषातीत चैतन्य की अवस्था में ही उसे जाना जा सकता है। आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दोनों प्रकार की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि हम भाषा की सीमा को जानें और शब्दों से उत्पन्न होने वाली भ्रांति से अपने आप को दूर करें। गीता हमें शब्दों से ऊपर उठने का संदेश देती है, भले ही वे शब्द धर्मग्रंथों के ही क्यों न हों।
 
भारतीय परंपरा में आध्यात्मिक खोज और वैज्ञानिक अनुसंधान को परस्पर विरोधी नहीं माना जाता। इस परंपरा में इस बात पर बल दिया गया है कि अंतिम सत्य को खोजने का काम मनुष्य के अशांत मन के द्वारा ही किया जाता है। इसलिए जब तक मनुष्य अपने मन की प्रकृति को नहीं समझेगा, तब तक उसे न तो अपने आंतरिक जीवन का आध्यात्मिक सत्य पता चलेगा और न बाहरी जीवन का वैज्ञानिक सत्य। वर्तमान समय के कुछ महानतम वैज्ञानिक इस दृष्टि का समर्थन करते हैं।
 
गीता के अनुसार परमात्मा सभी प्राणियों में सभी समय विद्यमान है। कोई भी मनुष्य अपने मन को पूर्णतया शांत करके बुद्धि के स्तर पर पहुंचकर परमात्मा को जान सकता है। अगर परमात्मा की परिभाषा देनी हो तो कहा जा सकता है कि भाषातीत चैतन्य परमात्मा है। इसका अर्थ केवल यह है कि जब मनुष्य के अंदर की चेतना इतनी शांत हो जाए कि उसमें शब्दों और बिम्बों की कोई भी तरंग न उठे तो उस अवस्था में वह मनुष्य परमात्मा के साथ एकाकार होता है। सभी धार्मिक और वैचारिक सिद्धांत और झगड़े शब्दों में होते हैं और इसलिए वे मन के स्तर तक सीमित हैं। गीता के संदेश को समझकर हम सभी प्रकार के संकुचित सिद्धांतों के ऊपर उठ सकते हैं जिनके कारण हमारे चिंतन और व्यवहार में रुकावटें आती हैं।
 
गीता के अनुसार मनुष्य की आध्यात्मिक खोज और समाज के प्रति उसके कर्तव्य में कोई विरोध नहीं है। वास्तव में गीता के अनुसार परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन आध्यात्मिक साधना का एक अंग है। यह कर्तव्य-पालन आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधा न होकर उसके लिए एक सीढ़ी है। गीता स्पष्ट रूप से घोषणा करती है कि जो दूसरे के दु:ख को अपना दु:ख समझता है, वही वास्तव में योगी है। आध्यात्मिक साधना में भी सफलता उसी को मिलेगी, जो अपने सामाजिक दायित्व का पालन करेगा।
 
गीता अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच संवाद है, जो क्रमश: व्यक्तिगत चेतना और विश्व चैतन्य के प्रतीक हैं। ये दोनों ही हमारे अंदर हमारी व्यक्तिगत चेतना और विश्व चैतन्य के रूप में विद्यमान हैं। अर्जुन द्वारा उठाए गए प्रश्न हमारे मन में हर रोज उठते हैं। उनका उत्तर हमें अपने हृदय की उस मौन गहराई में मिलेगा, जहां श्रीकृष्ण परमात्मा पूर्ण शब्दातीत नीरवता की भाषा में हमसे संवाद करने के लिए सदा विद्यमान हैं। (परमात्मा केवल एक ही भाषा का प्रयोग करता है और वह है पूर्ण आंतरिक नीरवता।)
 
जारी
 
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