गीता उपदेश : सुख और दु:ख- 6

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- अनिल विद्यालंकार
 
मनुष्य का जीवन अनुभूतियों के सतत प्रवाह और उनके द्वारा क्रियान्वित कार्यों के आधार पर चलता है। अधिकतर समय हमारी अनुभूति किसी विशेष दिशा में जाना चाहती है। यदि उस दिशा में जाने में हमें सफलता मिले तो हमें सुख की और यदि असफलता मिले तो दु:ख की अनुभूति होती है। 
 
सुख और दु:ख की यही परिभाषा है। प्यासा आदमी पानी के गिलास की तलाश करता है। यदि उसे पानी मिल जाता है तो वह सुखी होता है और न मिले तो दु:खी। कोई महत्वाकांक्षी व्यक्ति संसार का सबसे धनी मनुष्य बनना चाहता है। यदि इसमें वह सफल हो जाता है तो वह सुखी होगा और यदि असफल रहता है तो दु:खी। दोनों दशाओं में सुख और दु:ख की शर्त एक ही है- कोई अनुभूति वांछित दिशा में जा सकती है या नहीं।
 
जो अनुभूति किसी भी दिशा में न जाना चाहे उससे हमें न सुख मिलता है न दु:ख। जब तक हमारी अनुभूतियां दिशागत हैं, हमें सुख के साथ दु:ख का अनुभव होना स्वाभाविक है, क्योंकि हमारी अनुभूतियों की किसी विशेष दिशा में गति हमेशा सफल नहीं हो सकती। जितना अधिक हम सुख की तलाश में दौड़ेंगे, हमें उसी अनुपात में दु:ख मिलेगा। थोड़ा-सा सुख और बहुत-सा दु:ख, यह हमारे जीवन के प्रवाह का सामान्य रूप है। किसी भी व्यक्ति को जीवन में कितना सुख मिलेगा और कितना दु:ख, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी चेतना किस प्रकार की दिशाओं में गति करना चाह रही है। 
 
मनुष्य निरंतर अपनी अनुभूतियों, विचारों और उनके परिणामस्वरूप होने वाले कर्मों के बंधन में है। सब मनुष्यों की अनुभूतियां भिन्न-भिन्न होती हैं इसलिए वे भिन्न-भिन्न प्रकार के काम करते हैं। कोई संत अपने अंदर पापी व्यक्ति की अनुभूतियां नहीं जगा सकता और न पापी व्यक्ति संत की अनुभूतियां। सभी मनुष्य अपने-अपने स्वभाव से बंधे हैं, जो उनके अंदर विद्यमान अनुभूतियों से निर्धारित होता है। और ये अनुभूतियां किसी ऐसी शक्ति के द्वारा उत्पन्न होती हैं जिस पर उनका कोई बस नहीं है। दूसरे शब्दों में, जिसे मनुष्य अपना जीवन कहता है वह किसी और शक्ति के द्वारा जिया जा रहा है। होना भी ऐसा ही चाहिए। हम में से किसी का भी इस संसार में पैदा होने में कोई हाथ नहीं था इसलिए जिसे हम अपना जीवन कहते हैं, वह हमसे ऊपर की किसी शक्ति का खेल है। गीता कहती है, 'परमात्मा सब प्राणियों के अंदर निवास करता है। वह सभी प्राणियों को ऐसे घुमा रहा है मानो वे यंत्र-चालित हों।' हम अपने जीवन को इस विशाल परिप्रेक्ष्य में देखकर ही समझ सकते हैं। 
 
अनुभूतियों के इस सतत संघर्षमय जीवन में कुछ व्यक्तियों में, सब में नहीं, जीवन की दौड़-भाग से ऊपर उठकर अपने मूल रूप को जानने की तथा स्थायी शांति और सुख और सच्ची स्वतंत्रता पाने की अभिलाषा जगती है। गीता का कहना है कि यह अभिलाषा तभी पूरी होगी जब मनुष्य अपने जीवन के मूल स्रोत की ओर जाए, जो अपरिवर्तनशील और शाश्वत विश्व चैतन्य में है। पर अपने अंदर विद्यमान दिव्य तत्व तक पहुंचा कैसे जाए? 
 
अवश्य ही पहली बात तो यह समझने की है कि जिन्हें हम अपने कर्म कहते हैं, वे हमसे ऊपर की किसी शक्ति द्वारा किए जा रहे हैं, पर हमें लगता तो यह है कि अपने सभी काम हम स्वयं कर रहे हैं इसीलिए हम उनके प्रति अपनी जिम्मेवारी समझते हैं और जब भी हमारे कामों का कोई अच्छा परिणाम निकलता है तो उसका श्रेय लेना चाहते हैं। हमारी सारी न्याय-व्यवस्था इसी धारणा पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है। गीता के अनुसार ऐसा हमें इसलिए प्रतीत होता है कि हमारी दृष्टि अहंकार से आच्छादित है। इस अहंकार को समझने की आवश्यकता है, क्योंकि इसी के सहारे उसे समझा जा सकता है जिसे हम अपना आपा या अस्मिता कहते हैं। 
 
जारी
 
 
 
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