गीता सार : समत्वभाव- 13

अनिल विद्यालंकार
जब तक मनुष्य केवल सुख की तलाश में लगा है उसके जीवन में संघर्ष और दु:ख रहेंगे ही। शांति और प्रसन्नता का जीवन बिताने का उपाय यह है कि मनुष्य अपने अंदर ऐसे समत्व का भाव उत्पन्न करे जिससे वह सुख-दु:ख, हानि-लाभ, मान-अपमान और हार-जीत जैसे द्वंद्वों के प्रभाव से ऊपर उठ सके। 


 
यह मनोवृत्ति मनुष्य को अपनी शांति और सुख के स्रोत को अपने अंदर ही खोजने की ओर प्रवृत्त करती है। ऐसी अवस्था को पा लेने के बाद जीवन की बदलती रहने वाली परिस्थितियों का मनुष्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
 
हमें अन्य मनुष्यों के प्रति भी समत्वभाव वाला दृष्टिकोण उत्पन्न करना है। संसार का हर मनुष्य अपने-अपने स्वभाव से बंधा है जिसे बदलना आसान नहीं है। जिस प्रकार हम अपने स्वभाव से बंधे हैं और उससे नियंत्रित हैं उसी प्रकार दूसरे अपने स्वभाव से। हमारे मित्र और हमारे शत्रु अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आचरण करते हैं। हमें उन सबको एक समान भाव से देखना चाहिए। 
 
इसका मतलब यह नहीं है कि हम अच्छाई और बुराई में अंतर न करें। यह अंतर तो हमें करना ही है, पर यह अंतर करते हुए हमें बुरे लोगों से घृणा नहीं करनी है और जिन्हें हम पसंद करते हैं उनसे लगाव नहीं रखना है। बुरों से घृणा किए बगैर हमें समाज में बुराई से लड़ना है। 
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