वेद करते हैं हमारा मार्गदर्शन

अनंत और अविनाशी है वेद

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प्रस्तुति : आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
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जिस प्रकार ईश्वर अनादि, अनंत और अविनाशी है, उसी प्रकार वेद ज्ञान भी अनादि, अनंत और अविनाशी है। उपनिषदों में वेदों को परमात्मा का निःश्वास कहा गया है। वेद मानव मात्र का मार्गदर्शन करते हैं।

वेदों के प्रादुर्भाव के संबंध में यद्यपि कुछ पाश्चात्य विद्वानों तथा पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रभावित भारत के कुछ विद्वानों ने भी वेदों का समय-निर्धारण करने का असफल प्रयास किया है परंतु प्राचीन काल से हमारे ऋषि-महर्षि, आचार्य तथा भारतीय संस्कृति एवं भारत की परंपरा में आस्था रखने वाले विद्वानों ने वेदों को सनातन, नित्य और अपौरुषेय माना है।

उनकी मान्यता है कि वेदों का प्रादुर्भाव ईश्वरीय ज्ञान के रूप में हुआ है। जिस प्रकार ईश्वर अनादि, अनंत और अविनाशी है। उसी प्रकार वेद ज्ञान भी अनादि, अनंत और अविनाशी है। उपनिषदों में वेदों को परमात्मा का निःश्वास कहा गया है।

वैदिक का प्रकाश सृष्टि के आरंभ में समय के साथ उत्कृष्ट आचार-विचार वाले, शुद्ध और सात्विक, शांत-चित्तवाले, जन-जीवन का नेतृत्व करने वाले, आध्यात्मिक और शक्ति संपन्न ऋषियों को ध्यानावस्था में हुआ। ऋषि वेदों के कर्ता न होकर दृष्टा थे। उनके हृदय में जिन सत्यों का जिस रूप और भाषा में प्रकाश हुआ, उसी रूप एवं भाषा में उन्होंने दूसरों को सुनाया। इसीलिए वेदों को श्रुति भी कहते हैं।

वेदों की मुख्य विशेषता यह है कि वेद सर्वकालीन सर्व देशीय तथा सार्वभौमिक तथा सर्व उपयोगी हैं। ये किसी विशेष व्यक्ति, जाति, देश तथा किसी विशेष काल के लिए नहीं है। वेदों में जो विषय प्रतिपादित हैं, वे मानव मात्र का मार्गदर्शन करते हैं। मनुष्य को जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत प्रतिक्षण कब क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, साथ ही प्रातः काल जागरण से रात्रि शयन पर्यंत संपूर्ण दिनचर्या और क्रिया-कलाप ही वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं।

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पुनर्जन्म का प्रतिपादन, आत्मोन्नति के लिए वर्णाश्रम की व्यवस्था तथा जीवन की पवित्रता के निमित्त भक्ष्य-अभक्ष्य पदार्थों का निर्णय करना वेदों की मुख्य व्यवस्था है। कर्मकांड, उपासनाकांड और ज्ञानकांड इन तीनों विषयों का वर्णन मुख्यतः वेदों में मिलता है। वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक और सांसारिक ज्ञान देना है, जिससे प्राणिमात्र इस असार संसार के बंधनों के मूलभूत कारणों को समझकर दुखों से मुक्ति पा सके।

वेदों में कर्मकांड और ज्ञानकांड दोनों विषयों का सर्वांगीण निरूपण किया गया है। वेदों का प्रारंभिक भाग कर्मकांड है और वह ज्ञानकांड वाले भाग से बहुत अधिक है। कर्मकांड में यज्ञ अनुष्ठान संबंधी विधि आदि का सर्वांगीण विवेचन है। इस भाग का प्रधान उपयोग यज्ञ अनुष्ठान में होता है।

वेदों की अपौरुषेयता और का प्रतिपादन करते हुए महर्षि अरविंद ने उन्हें श्रेय स्वीकार किया है। भारतवर्ष और विश्व का विकास इनमें निहित ज्ञान के प्रयोग पर निर्भर करता है। वेदों का उपयोग जीवन के परित्याग में नहीं, प्रत्युत संसार में जीवनयापन के लिए है।

हम जो आज हैं और भविष्य में जो होना चाहते हैं उन सभी के पीछे हमारे चिंतन के अभ्यंतर में हमारे दर्शनों के उद्गम वेद ही हैं। यह कहना उचित नहीं कि वेदों का सनातन ज्ञान हमारे लिए सहज मार्ग की प्राप्ति के लिए अति दुरूह और भटकने जैसा है। हां इनको समझने के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है।

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