NCERT की किताबों में अकबर को बताया क्रूर, जानिए अकबर की वो 5 गलतियां, जो बन गईं उसकी बदनामी की वजह

WD Feature Desk
गुरुवार, 17 जुलाई 2025 (16:52 IST)
ncert books controversy: एनसीईआरटी की आठवीं कक्षा की किताब में औरंगजेब और अकबर पर नया चैप्टर जोड़ा गया है। इसमें अकबर को ‘सहिष्णु’ लेकिन ‘क्रूर’ बताया गया है। मुगलों के बारे में वर्णन करते हुए इस चैप्टर में लिखा गया है कि अकबर एक ‘निर्मम आक्रमणकारी’ था। किताब में उल्लखित है- प्रशासन के उच्च मानकों पर गैर मुसलमानों को अल्पसंख्यक रखा गया था। पुस्तक में चितौड़गढ़ की घेराबंदी का जिक्र किया गया है। इसके बारे में बताया गया है कि अकबर ने यहां पर 30 हजार से अधिक नागरिकों के नरसंहार का आदेश दिया था। किताब में इस तरह के चैप्टर पर आने वाले समय में खासी सियासत और विवाद हो सकता है।

मुगल सम्राट अकबर को मुगल इतिहास के सबसे महान शासकों में से एक माना जाता है और उन्हें 'अकबर महान' की उपाधि दी गई। हालांकि, हर शासक की तरह, अकबर के शासनकाल में भी कुछ ऐसे निर्णय और घटनाएं थीं, जिन्हें इतिहासकारों ने उनकी 'गलतियों' के रूप में देखा है। ये गलतियां, भले ही उनके विशाल व्यक्तित्व के सामने छोटी लगें, लेकिन कहीं न कहीं उनकी बदनामी का कारण बनीं और उनके शासन के कुछ पहलुओं पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। आइए, इतिहास के पन्नों में छिपी अकबर की ऐसी ही 5 सबसे बड़ी गलतियों पर एक नज़र डालते हैं।

1. दीन-ए-इलाही की स्थापना: एक आदर्शवादी प्रयोग की विफलता
अकबर ने विभिन्न धर्मों के मूल तत्वों को मिलाकर 1582 ईस्वी में 'दीन-ए-इलाही' नामक एक नए धार्मिक मार्ग की स्थापना की। इसका उद्देश्य धार्मिक सद्भाव और एकता स्थापित करना था। इसमें रहस्यवाद, प्रकृति पूजा और दर्शन जैसे तत्व शामिल थे, और यह शांति व सहिष्णुता की नीति का समर्थन करता था। हालांकि, यह एक आदर्शवादी प्रयोग था जो आम जनता या अन्य धार्मिक नेताओं द्वारा व्यापक रूप से स्वीकार नहीं किया गया। यह केवल कुछ चुनिंदा दरबारियों (जैसे बीरबल) तक ही सीमित रहा और अकबर की मृत्यु के बाद समाप्त हो गया। कई आलोचकों ने इसे अकबर की धार्मिक मूर्खता या अहंकार का प्रतीक माना, क्योंकि यह किसी भी धर्म के अनुयायियों को पूरी तरह से संतुष्ट नहीं कर सका और इसे एक नए धर्म के रूप में स्थापित करने का प्रयास सफल नहीं हुआ।

2. राजपूतों के साथ संबंध
अकबर की राजपूत नीति को आमतौर पर उनकी सफलता का एक प्रमुख कारण माना जाता है, क्योंकि उन्होंने राजपूत राजाओं के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए और उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त किया। हालांकि, इस नीति के कुछ पहलू विवादास्पद रहे हैं। उदाहरण के लिए, चित्तौड़गढ़ के किले की घेराबंदी (1568 ई।) के दौरान अकबर द्वारा किए गए नरसंहार को लेकर उनकी आलोचना की जाती है, जहाँ हजारों निहत्थे नागरिकों की हत्या कर दी गई थी। इसके अतिरिक्त, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत राजकुमारियों से विवाह करना, भले ही राजनीतिक रूप से फायदेमंद रहा हो, लेकिन यह राजपूतों के लिए एक प्रकार का समझौता भी था, जिस पर सभी राजपूत शासक सहमत नहीं थे (जैसे महाराणा प्रताप)। कुछ मामलों में, अकबर ने बलपूर्वक भी राजपूत राज्यों को अपने अधीन करने का प्रयास किया, जिससे उनके संबंधों में तनाव भी आया।

3. गलत उत्तराधिकारी का चुनाव:
अकबर ने अपने पुत्र सलीम (जो बाद में जहाँगीर के नाम से जाना गया) को अपना उत्तराधिकारी चुना। हालांकि, सलीम अपने पिता के जीवनकाल में ही विद्रोही स्वभाव का था और उसने कई बार अकबर के खिलाफ विद्रोह किया। उसने अकबर के प्रिय दरबारी अबुल फजल की हत्या भी करवा दी थी। अकबर ने सलीम की इन प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने या किसी अन्य अधिक योग्य उत्तराधिकारी का चुनाव करने में पर्याप्त दृढ़ता नहीं दिखाई। सलीम के विद्रोही स्वभाव और बाद के शासनकाल में उसकी कुछ लापरवाहियाँ (जैसे नूरजहाँ का बढ़ता प्रभाव) मुगल साम्राज्य की स्थिरता के लिए चुनौती बनीं, जो कहीं न कहीं अकबर के उत्तराधिकारी के चुनाव में दूरदर्शिता की कमी को दर्शाता है।

4. सैन्य अभियानों में देरी और अनावश्यक जोखिम
अकबर की कुछ सैन्य अभियानों में उनकी देरी या अनावश्यक जोखिम ने उन्हें नुकसान पहुंचाया। उदाहरण के लिए, युसुफजई कबीले के विद्रोह को दबाने के लिए बीरबल को स्वात घाटी भेजना, जहाँ बीरबल की मृत्यु हो गई, एक ऐसी गलती मानी जाती है। बीरबल अपनी बुद्धिमत्ता के लिए जाने जाते थे, युद्ध कौशल के लिए नहीं, और उन्हें ऐसे खतरनाक सैन्य अभियान पर भेजना अकबर का गलत निर्णय था। इस घटना से अकबर को गहरा दुख हुआ और उनकी प्रतिष्ठा को भी ठेस पहुँची। कुछ अन्य अभियानों में भी, अकबर ने अनावश्यक जोखिम उठाए या देरी की, जिससे संसाधनों का अपव्यय हुआ और कभी-कभी अपेक्षित परिणाम नहीं मिले।

5.धार्मिक मामलों में पुजारियों को दबाने का प्रयास
अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति प्रसिद्ध है, और उन्होंने इबादतखाना की स्थापना कर विभिन्न धर्मों के विद्वानों के साथ चर्चा की। हालांकि, कुछ अवसरों पर, विशेषकर इबादतखाना में होने वाली बहसों के दौरान, अकबर ने कुछ धार्मिक नेताओं (विशेषकर उलेमा) की कट्टरता को दबाने का प्रयास किया। उन्होंने 1579 में 'महजर' नामक एक घोषणापत्र जारी किया, जिसने उन्हें धार्मिक मामलों में अंतिम व्याख्याकार (इमाम-ए-आदिल) का अधिकार दिया। इस कदम को कुछ उलेमाओं ने अपनी धार्मिक सत्ता पर अतिक्रमण के रूप में देखा और इसका विरोध किया। हालांकि अकबर का इरादा धार्मिक एकता स्थापित करना था, लेकिन इस तरह के प्रयासों ने कुछ धार्मिक वर्गों में असंतोष पैदा किया और उन्हें यह महसूस कराया कि उनकी धार्मिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा रहा है।
 
उपर्युक्त गलतियां दर्शाती हैं कि कोई भी शासक त्रुटिहीन नहीं होता। दीन-ए-इलाही का असफल प्रयोग, राजपूतों के साथ संबंधों के कुछ विवादास्पद पहलू, उत्तराधिकारी के चुनाव में चूक, सैन्य निर्णयों में गलतियां और धार्मिक मामलों में कुछ हद तक हस्तक्षेप, ये सभी अकबर के शासनकाल के ऐसे पहलू हैं जो उनकी महानता के बावजूद उनकी आलोचना का कारण बने। ये गलतियाँ हमें याद दिलाती हैं कि इतिहास जटिल है, और किसी भी व्यक्ति या काल का मूल्यांकन करते समय हमें उसके सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए।
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