चुनाव में मुद्दे वास्तव में बहुत ही प्रभावशाली होते हैं, जिनके आधार पर चुनाव लड़ा जाता है। वे चुनाव की लहर को अपनी ओर मोड़ देते हैं। मुद्दे जन सामान्य की जुड़ी वे समस्या होते हैं, जो सीधे मतदाता को प्रभावित करते है। ऐसा ही नजारा रहा है इंदौर के नगर निगम चुनाव 1958 में। जब साइकिल पर लगने वाला कर चुनाव का एक ज्वलंत मुद्दा हो गया था। मध्यभारत से मध्यप्रदेश बनने के बाद इंदौर नगर पालिका नगर निगम में परिवर्तित कर दी गई और पहले निगम के चुनाव 1958 में हुए।
पहले दो नगर पालिका चुनाव में कांग्रेस निगम की सत्ता पर काबिज हुई। अब बारी थी नगर निगम चुनाव की। 1957 के विधानसभा चुनाव में कॉमरेड होमी दाजी ने श्रमिक नेता गंगाराम तिवारी को चुनाव में पराजित कर दिया था, जो नगर के इतिहास में होमी दाजी की बड़ी विजय थी। इस जीत से होमी दाजी को उनके साथियों ने 1958 के निगम चुनाव में नए मोर्चे के गठन का प्रस्ताव किया जिसे दाजी ने माना और नागरिक मोर्चे के बैनर तले अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। कॉमरेड होमी एफ दाजी के नागरिक मोर्चा ने निगम चुनाव में कांग्रेस और जनसंघ जैसे दलों को कड़ी टक्कर दी।
काफी प्रभाव था होमी दाजी का : उस वक्त नगर के तेजतर्रार युवा कम्युनिस्ट नेता होमी दाजी का मिलों के मजदूरों में काफी प्रभाव था। होमी दाजी एक कुशल वक्ता भी थे जिनकी सभाओं में मिलों के गेटो पर खासी भीड़ एकत्र हो जाया करती थी। मजदूर वर्ग के साथ उनका नगर में प्रभाव भी अच्छा था।
1958 के निगम चुनाव में नागरिक मोर्चे के विजयी लोगों में पुरुषोत्तम विजय, कॉमरेड हरिसिंह, सुरेंद्र नाथ गुप्ता, रणछोड़ रंजन, बालाराव इंग्ले, नारायण प्रसाद शुक्ला, वासुदेवराव लोखंडे अदि कई नेता दाजी की टीम में थे। दाजी के इस नागरिक मोर्चे ने चुनाव में महती सफलता हासिल की और 1958 से 1965 के मध्य रही मोर्चे की परिषद ने नगर को 8 लोगों को बारी-बारी से महापौर बनाया था।
दाजी के मोर्चे की इस चुनाव में विजय होने का मुख्य वजह थी कि दाजी द्वारा नगर की जनता से यह वादा किया था कि यदि सत्ता में आते हैं तो साइकिल पर लगने वाला कर समाप्त कर देंगे। उस वक्त यातायात के साधन इतने नहीं थे, निजी वाहनों की संख्या आज की तुलना में नहीं के बराबर थी। ऐसे में सस्ता और गरीबों का परिवहन का एकमात्र साधन साइकिल ही थी। इंदौर एक सूती उद्योग प्रधान क्षेत्र था। नगर में 6 कपड़ा मिले थी, जिसमें 15 हजार से अधिक मजदूर कार्यरत थे। उस दौर में करीब 30 हजार से अधिक साइकिल नगर में थीं। तब मजदूरों और आम जनता को साइकिल पर लगने वाला वार्षिक कर जो एक रुपया से भी कम था, वह भी बोझ लगता था। जाहिर है आय के साधन नहीं थे और गरीबी ज्यादा थी।
1944-45 एवं 1945-46 की नगर निगम के बजट में प्राप्त आय को देखें तो क्रमश: 20 हजार 999 और 21 हजार 13 रुपए साइकिल कर के रूप में प्राप्त होते थे।
साइकिल का नाम सुनते ही एक सस्ते और सुंदर परिवहन के माध्यम की ओर ध्यान जाता है। 18वीं शताब्दी से यूरोप से आरंभ हुआ साइकिल का सफर धीरे-धीरे सस्ते साधन के रूप में सम्पूर्ण विश्व में अपनी पहचान बनाता गया। साइकिल के रूप में आविष्कार के आरंभ के बाद से सुधार होता गया और वह आज आधुनिक रूप में कई प्रकारो में आम जनता के लिए उपलब्ध है।
यह वही साइकिल थी, जिसने नगर निगम के चुनाव में सत्ता बदलकर अपनी महत्ता साबित कर चुनाव के एक मुद्दे की अहमियत बताई थी।