रंग न कर दे मजा बेरंग

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फागुन का त्योहार प्यार, त्याग, द्वेषरहित, आपसी मेल-मिलाप, मस्ती और तरंग लेकर आता है और सभी को उत्साह से भर देता है। बच्चों की तैयारी तो कई दिन पहले से ही होने लगती है। वे तरह-तरह की पिचकारियाँ, रंग और गुलाल खरीदने लगते हैं। बच्चों के साथ बड़े भी पूरे उत्साह से जुट जाते हैं। पर यह कोई नहीं सोचता कि होली में इस्तेमाल किए जाने वाले रासायनिक तेजाबी रंग हमारी त्वचा व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं।

होली के अवसर पर प्रयोग में आने वाले रंगों को मुख्यतः तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है। जो हैं तेजाबी रंग, मूल रंग, मिश्रित अथवा हल्का रंग। कभी-कभी सीसे से बनाए या पोटैशियम डाइक्रोमेट से बने रंगों का उपयोग भी किया जाता है। तेजाबी रंग बहुत हानिप्रद होते हैं और अगर कई घंटे तक हमारी त्वचा और बालों पर रहें तो उनकी रंगत बदल देते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बालों और त्वचा की कोशिकाओं में प्रोटीन होता है। ऐसा रंग काफी देर तक लगा रहे तो त्वचा का पहले जैसा रंग फिर से आने में कई महीने लग सकते हैं।

आमतौर पर रंगों के प्रभाव की कोई चिंता नहीं करता। लेकिन हम नहीं जानते कि कई रंग बीमारी को निमंत्रण भी दे बैठते हैं। हमारी त्वचा पूरे शरीर का ऐसा रक्षा कवच है जो थोड़ी मात्रा में हानिकारक रासायनिक तत्वों को रक्त के माध्यम से शरीर में नहीं पहुँचने देती, लेकिन यदि आप होली खेल रहे हैं और शरीर पर कोई घाव हो या घाव अभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ हो तो उसके जरिए रंगों में घुला रासायनिक तत्व रक्त में मिल जाएगा और इसके हानिकारक प्रभाव हो सकते हैं। इनमें से कुछ रसायन तो पानी में घुल जाते हैं तथा मल त्याग के साथ बाहर आ जाते हैं, पर सीसा और जस्ता जैसे रसायन शरीर में ही बैठ जाते हैं।

सीसा रक्त में रह जाए तो रक्त कैंसर जैसी भयानक बीमारी हो सकती है। होली के जिन रासायनिक रंगों को जिंक क्लोराइड से तैयार किया जाता है उनके त्वचा के संपर्क में आने पर फोड़े (अलसर) हो सकते हैं। यदि होली का रंग डालते समय संयोग से जिंक क्लोराइड की कुछ मात्रा मुँह के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाए तो शरीर के अंदर नाजुक अंगों की महीन झिल्लियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं।

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