होली की कथा

बच्चों को डराती थी राक्षसी

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भारतीय पर्व एवं त्योहारों से जुड़ी कथाएँ और किंवदंतियाँ इनकी उत्पत्ति पर प्रकाश डालती हैं। कभी लिखित तो कभी मौखिक ये पीढ़ी दर पीढ़ी धरोहर बनती चली जाती हैं। इस प्राचीन उत्सव पर निगाह डालें तो कई नाम मिलते हैं। आरंभिक शब्द 'होलाका', फिर 'हुताश्नी', 'फाल्गुनिका', 'होलिकोत्सव', 'होलिका' से लेकर आज की 'होली' तक। इसकी उत्पत्ति से जुड़ा प्रमुख प्रसंग यहाँ प्रस्तुत हैं-
 
युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा, 'फाल्गुन पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है?'
 
श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को राजा रघु के विषय में एक किंवदंती सुनाई।
 
राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गए कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी बच्चों को दिन-रात डराया करती है। राजा द्वारा पूछने पर उनके पुरोहित ने बताया कि वह मालिन की पुत्री एक राक्षसी है, जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते और न वह अस्त्र-शस्त्र या जाड़े, गर्मी या वर्षा से मर सकती है; किंतु शिव ने इतना कह दिया कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है।
 
पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है।
 
तब लोग हँसें और आनंद मनाएँ। बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर आनंदपूर्वक निकल पड़ें। लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें। रक्षोऽम्‌ मंत्रों के साथ उसमें आग लगाएँ, तालियाँ बजाएँ एवं अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें।
 
हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गाएँ, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गई और उस दिन को अडाडा या होलिका कहा गया।

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