जब डमरूधारी बाबा शिव मां गौरी को रंगने से नहीं चूके...

आत्माराम यादव 'पीव'
* गिरिजा संग होरी खेलत बाघम्बरधारी
 
श्मशान जीवन के अंतिम पड़ाव की विश्रामस्थली है, जहां मृत्यु के पश्चात शरीर स्थायी रूप से पंचतत्व में विलीन हो जाता है। रंगों की वीतरागता इस श्मशान भूमि पर किसी को भी आल्हादित नहीं करती तभी मृतक देह को बिदाई करते समय हर व्यक्ति जीवन की असारता समझते हुए अध्यात्मवाद में सराबोर हो मृतक की देह को दहकती अग्नि में भस्मीभूत होने तक मशगूर होता है।
 
भस्मीभूत शव को अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित कर उसकी परिक्रमा के पश्चात घर लौटने के बाद यही मनुष्य बुद्धत्व की तमाम देशनाओं को विस्मृत कर सांसारिक हायतौबा में खुद को झोंक देता है फिर जीवन के रंगों का पूर्णाभास उसे कतई नहीं हो पाता है। विश्वविख्यात ब्रजभूमि की चुहलबाजी होली की निराली छटा जीवन में रोमांच व आनंद को जन्म देती है जबकि श्मशान की कल्पना देहावसान से ही महसूस की जाती है।
 
अजीब संयोग की बात है कि देह त्यागने के पश्चात अर्थी को जहां गुलाल-अबीर डालकर सजाया जाता है, वहां रंगों के आभास के साथ ही मृतक के सगे-संबंधियों को मृतक से सदा के लिए बिछोह पर अपूरणीय कष्टभाव को सहना नियति का बदरंग स्वरूप माना गया है।
 
मृत्यु के आगमन पर मृतक देह के साथ रंगों से लगाव किसी को गले नहीं उतरेगा किंतु यह यथार्थ सत्य है कि जन्म से मृत्यु तक के सफर में सप्तरंगी रंगों की छटा बिखरी हुई है। ऐसे ही यदि महाकाल के प्रतिनिधि महादेव शिव श्मशान भूमि पर मुर्दे की भस्म लपेटे काले सर्पों की माला पहने बिच्छुओं का जनेऊ धारण कर विचित्र स्वरूप लिए भय की उत्पत्ति के साथ तांडवकर्ता शिव अपनी प्रकृति के विपरीत होली के रंगों की उमंग में जीवन के सारतत्व का संदेश दें तो यह अद्वितीय ही माना जाएगा।
 
अभी तक पाठकों ने बृजवासी ग्वाल बाल, प्रेम में पगे श्रीराधा-कृष्ण व गोपियों के बीच होली और रंगों से सराबोर जीवनशैली का आनंद उठाया है किंतु यह पहली बार है, जब जगत-जननी मां पार्वती और मृत्यु के कारक शिवजी के जीवन में रंगों होली व रंगों से परिचित हो रहे हैं।
 
एक ओर मानव हृदयाकाश विषैली विकारमयी बदलियों से ढंका राग-द्वेष से अपनी स्वच्छंदता की शाश्वत तस्वीर भूलकर अपने व्यक्तित्व की बहुआयामी दिशाओं में खुद को बंद कर बैठा है वहीं दूसरी ओर मन की धरती पर प्रतिशोध की नागफनियों से पट गया है इसलिए रंगों के स्वरूपों की मौलिकता उसके जीवन में स्वर्णमृग की तृष्णा बनकर रह गई है।
 
होली शाश्वत काल से बुराइयों को दग्ध कर अच्छाइयों को ग्रहण करने का संदेश देती आ रही है जिससे कि वर्षभर एकत्र विकारों को धोया जा सके और उनका स्थान प्रेम, भाईचारा और सद्भाव की मधुरिमा ले सके। यह हार गमों को भुलाकर हंसी-खुशी मस्ती में खो जाने का है जिसकी सुगंध साहित्यकारों-धर्मज्ञों ने पुराणों में अभिव्यक्त कर चिरस्थायी बना दी है जिससे इसे मनाने का उत्साह दिनोदिन जबरदस्त होता दिखाई देता है।
 
रंगों की मादकता मृत्युंजय के लिए यहां धतूरे की तरंग से कई गुनी ज्यादा है। इसमें डूबे नंदीश्वर उमा की मोहिनी सूरत देखते हैं, जो उन्हें और भी मदहोश कर देती है-
 
'जटा पैं गंग भस्म
लागी है अंग संग 
गिरिजा के रंग में 
मतंग की तरंग है।'
 
विचित्रताओं की गढ़ बनी हिमालय भूमि भोले को देख पुलकित होती है। विभिन्न ध्वनियों में नगाड़े, ढोल व मृदंग आदि कर्णभेदी ध्वनियों के बीच नंगेश्वर के गण फागुन की मस्ती में ये तक भूल जाते हैं कि उनके तन पर वस्त्र है या नहीं-
 
'बाजे मृदंग चंग
ढंग सबै है उमंग 
रंग ओ धड़ंग गण 
बाढ़त उछंग है।'
 
एकबारगी हिमाचलवासी भोलेशंकर की बारात देखकर अवाक् से रह उमा की किस्मत के लिए विधाता को कोसते हुए अपने-अपने घरों के दरवाजे बंद कर देते हैं। आज भोलेशंकर उस दूल्हा रूप से भी डरावने दिख रहे हैं, जो होली में मतबोर होकर झूम रहे हैं और उनके साथ उनके शरीर में लिपटते सर्प-बिच्छू फूफकारते हुए मस्त हो रहे हैं-
 
'बाघम्बर धारे
कारे नाग फुफकारे सारे
मुण्डमाल वारे
शंभु औघड़ हुए मतवारे हैं।'
 
होली के अवसर पर भला ऐसा कौन होगा, जो अपने प्रिय पर रंग डालने का मोह त्याग सके। सभी अपने-अपने हमजोली पर रंग डालने की कल्पना संजोए होली की प्रतीक्षा करते हैं। जब स्वयं जगत संहारक शिव उमा को रंगने से नहीं चूके तो साधारण मनुष्य अपनी पिपासा कैसे छोड़ सकता है-
 
'गिरिजा संग होरी खेलत बाघम्बरधारी
अतर गुलाल छिरकत गिरिजा पंहि
अरू भीज रही सब सारी।'
 
कितना सुहाना होगा वह दृश्य, जब डमरूधारी बाबा जगजननी के पीछे दीवानों की तरह भागे थे। वे आंखें धन्य हैं जिन्होंने मोह-माया से परे इस लीला को देखा होगा, जब अपनी भिक्षा की झोली में रंग-गुलाल व रोरी भरकर नाचते भोले बाबा को उमा के ऊपर छिड़कने का दृश्य अनुपम रहा होगा, जब-
 
'रोरी रे झोरी सो फैकत
अरू अब रख चमकत न्यारी 
गिरिजा तन शिव गंग गिराई 
हंसत लखत गौरा मतवारी।'
 
कैलाशवासी गौरा के तन को रंग दे तब क्या वे भोले बाबा को छोड़ देंगी? वे भी हाथ में पिचकारी लेकर अपनी कसर निकाले बिना नहीं रहेंगी। जिसे देख भले ही हंसी से ताली बजाती सखियां दूर बैठी लोट-पोट हो जाएं, फिर वे खुशी से गीत गा उठे तो मजा और भी बढ़ जाए-
 
'औघड़ बाबा को रंगे शैल-सुता री
अरू रंग लिए पिचकारी
फागुन मास बसंत सुहावन 
सखियां गावत दे-दे तारी।'
 
उमा की पिचकारी से भोले बाबा का बाघम्बर भीग जाता है और शरीर में रंगी विभूति बहकर रंग केसर ही रह जाता है, तब रंग अपने भाग्य पर मन ही मन हर्षित हो उठता है। इस भाव दशा को कवि इस तरह व्यक्त करता है-
 
'उड़ी विभूति शंभू केसर
रंग मन में होत उलास
भीग गयो बाघम्बर सबरो
अब रख जहां प्रकाश।'
 
इसी तरह कई रसभरे गीत लावनियां अपने मधुर एवं मादक स्वरों से ब्रज ही नहीं, बल्कि लोक घटनाओं में समाए चरित्रों राधा-कृष्ण के मिले-जुले प्रेम-रंगों से भरे होली पर्व को इस सृष्टि पर जीवंत जीने वाले पात्रों सहित भारत देश की माटी में बिखरी भीनी फुहारों से उपजने वाली खुशबू को ढोलक, झांझ व मंजीरों की थाप से फागुन के आगमन पर याद करते हैं। यही क्रम जीवन को आनंदित करता हुआ सदियों तक जारी रहेगा और स्वर लहरियां देर रात गए तक गांव की चौपालों में गूंजती रहेंगी।

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