एक 'गंध' को ताउम्र जेहन में बसा लेने की हसरत

Webdunia
-स्वतंत्र मिश्र
 
बचपन को याद करना और उसे किसी खास संदर्भ में याद करना एक बहुत मुश्किल काम होता है। यादें व्यवस्थित नहीं होती हैं इसलिए उसे कागज पर उतारना और भी मुश्किल काम होता है। यहां मेरे लिए अपने बचपन के उस हिस्से को याद करना एक ‘टास्क’ की तरह ही है, जो मुझे मित्र मुकेश मानस ने दिया है।
 
सबसे पहले मैं आपको अपने शहर और अपने मोहल्ले के सामाजिक ताने-बाने के बारे में बताना चाहूंगा, जिससे आपकी परेशानी कम होगी। मेरा शहर ‘जमालपुर’ जिसे लौह-नगरी के नाम से जाना जाता है। अगर रेलवे कारखाना और उसकी धड़कन को जिंदा रखने के लिए हजारों कर्मचारियों-अधिकारियों को इस शहर से अलग कर दिया जाए तो शायद यहां कुछ भी जिंदा नहीं रह जाए। हालांकि नव-उदारीकरण की व्यवस्था में ‘कम मजदूर और ज्यादा उत्पादन’ के सिद्धांत से पूरी दुनिया की तस्वीर बदली है तो फिर इस छोटे से शहर जमालपुर की क्या औकात? नव-उदारीकरण का दौर शुरू होने से पहले यहां 26000 से ज्यादा कर्मचारी हुआ करते थे। अब यहां 8000 भी शायद ही बचे होंगे। खैर, धीरे-धीरे ही सही सांस तोड़ते हुए इस शहर में बहुत कुछ बदलता रहा लेकिन यहां की समरसता में आज तक किसी किस्म की कोई बाधा नहीं पड़ी। शायद इसकी वजह यह रही हो कि यहां अनुसूचित जाति और जनजातियों सहित पिछड़ों की संख्या ज्यादा है और उनकी आर्थिक हालत थोड़ी बेहतर है। 
 
हम यहां ‘वलीपुर’ नाम के मोहल्ले में रहते थे। इसे यहां के स्थानीय लोग प्यार से ‘ओलीपुर’ भी कह लेते थे। हम जिस घर में रहते थे, उसमें हमारे अलावा एक भूमिहार परिवार रहता था। हमारा परिवार इस मकान में 25 साल किराए पर रहा। हमारे घर के दो कोनों पर मुस्लिम परिवार रहते थे। बाकी के कोने पर नाई, तेली, हलवाई आदि...। पूरब में ‘गोपलिया माय’ के नाम से पुकारा जाने वाला एक मुसलमान परिवार रहता था। मुर्गी और बकरी पालने के अलावा वे लोग मुख्य तौर पर कपड़े सिलने का काम किया करते थे। उनके घर के एक छोर पर बरगद के विशाल पेड़ की छांह में बजरंग बली का बसेरा था और उन्हीं की वजह से मैंने ‘पड़ गए राम कुकुर के पल्ले' मुहावरे का अर्थ व्यावहारिक तौर पर पहली बार जाना था। बजरंग बली के पड़ोस में आनंद मार्ग के जन्मदाता प्रभात रंजन सरकार (आनंद मार्ग की उत्पत्ति का स्थान) का बनाया हुआ आश्रम था तो दूसरे पड़ोसी ‘अल्लाह मियां’। 
 
अलसुबह अल्ला मियां के शागिर्द एक बूढ़े फकीर (मोअज्जन) की नींद खुलती और वह ऊंची लेकिन बहुत मधुर आवाज में अजान पढ़ता था। साथ ही गोपलिया मां के मुर्गे भी बांग देने लगते। इस तरह सुबह जगने की आदत यहीं से डल गई। हम कभी क्रिकेट खेलने तो कभी दौड़ने के लिहाज से चार-पांच किलोमीटर दूर रेलवे कालोनी में स्थित ‘टंकी पानी वाले मैदान’ चले जाते। वहां से लौटते तो आनंद मार्ग के आश्रम से अनुयायियों की ‘बाबा नाम केवलम’ की आवाजें कानों तक पहुंचने लगती थी। हम आनंद मार्ग के आश्रम में लोगों की इस हिदायत के बाद भी वहां स्थित कुएं मे ‘बहुत सारे लोगों को काटकर फेंक दिया गया है’ जाकर कभी भी प्रसाद में मिलने वाली खिचड़ी खा आते थे। ज्यादातर समय सूना रहने की वजह से हमारे लिए आश्रम खेलकूद की एक अच्छी जगह होती थी। कुएं में क्रिकेट की गेंद चली जाती तो उसे निकालने के लिए हम इसमें उतर भी जाते थे। 
 
शहर का भूजल स्तर गिरने लगा तो गर्मियों में इस कुएं का पानी पूरी तरह सूख जाता और इसमें ‘भूत’ होने की बात भी झूठी लगने लगी थी। पश्चिम के कोने पर एक दूसरा मुस्लिम परिवार ‘थोथवा माय’ रहता था। ये भी मुख्य तौर पर कपड़े सिलने का काम करते थे। थोथवा दर्जी की मां अंडे, अमरूद और जामुन बेचती थीं। उसे बेचकर मिलने वाले पैसे वही रखती थीं जिसकी वजह से मां-बेटे में अक्सर तनातनी होती रहती थी। थोथवा माय गाली बहुत रचनात्मक तरीके से देती। हम उसकी गालियों का लुत्फ उठाते। उनके घर के बगीचे में अमरूद और जामुन के पेड़ों पर लगे फल हमारे अक्सर निशाने पर होते थे। चोरी का मौका ताड़कर हम सिकंदर की तरह सब लूट ले जाना चाहते थे, लेकिन बिना किसी शोर-शराबे के। तेज बारिश के शोर में हम पेड़ पर चढ़कर अपने मिशन को बहुत खूबसूरती से अंजाम दिया करते। यही वजह है कि हमें बारिश आज भी बहुत भाती है। यह अलग बात है कि बारिश के मौसम में ‘डालडा’ और ‘रथ’ वनस्पति के कनस्तर में इकट्ठा मनुष्य का मल सड़कों पर बुरी तरह से पसर जाता था। बारिश में मल में उत्पन्न होने वाला पिल्लू मल विसर्जन के लिए बैठने की जगह तक पहुंच जाते और हम झाडू की सींक लेकर उसे दूर खदेड़ते रहते। शौचालय की छत भी बुरी तरह टपकती रहती थी। कनस्तर में बारिश का पानी चले जाने से मल विसर्जन की सीट पर बैठे यौद्धाओं को मल के छींटे पांवों में पड़ जाने का डर सताता रहता था और अपने को बचाने के लिए बहुत चैकन्ना भी रहना पड़ता था। 
 
सड़कों पर नालियों का पानी घंटों जमा रहता और हमें इसी में से गुजर कर किसी भी काम के लिए जाना पड़ता था। खेलने के साधन इन दिनों घरेलू हो जाते। इस मौसम में कैरमबोर्ड, लूडो, व्यापार और शतरंज हम भाई-बहन खेला करते थे। इस सीजन में हमारे घर में लगे हैंडपंप का पानी भी बुरी तरह से दूषित हो जाता था। उस गंदले पानी से हम नहाने और कपड़े धोने का काम तो कर सकते थे लेकिन उसे किसी भी तरीके से पीया नहीं जा सकता था। वैसे हमारा पूरा मोहल्ला पीने का पानी तीन-चार किलोमीटर दूर रेलवे स्कूल या रेलवे कॉलोनी के क्वार्टर से तयशुदा समय में लाया करते थे। मैं पानी लाने का यह काम अपने भाई के साथ कोई दस साल की उम्र से करने लगा था। शुरुआती दौर में माथे पर अल्यूमीनियम की ‘देगची या तसली’ में पानी भरकर लाता था। बड़े होने के साथ ही देगची ढोने में थोड़ी शर्म सी महसूस होने लगी तो घर वालों ने प्लास्टिक के पांच और दस लीटर के डिब्बे (हम ब्लाडर या थरमस कहते थे) भी हमें दे दिए। हम जिनके घरों से पानी भरकर लाते थे, वे भी तथाकथित छोटी जातियों मसलन सूढ़ी, तेली आदि जातियों से नाता रखते थे। हमारे साथ पानी भरकर लाने वाले दोस्त सूढ़ी, तेली, नाई, बनिया और भूमिहार जातियों से होते थे। 
 
पानी लाने से जुड़ी एक घटना जो कभी भुलाए नहीं भूलती है। इसे भूलना इसलिए भी संभव नहीं हुआ क्योंकि हमारी उम्र के ही एक लड़के के हाथों की गंध मेरे जीभ, मन, मस्तिष्क पर आज तक ठहर गई मालूम पड़ती है। आज भी उस घटना की याद आते ही मेरे रोएं खड़े हो जाते हैं। असल में हुआ यह था कि मैं शाम के समय सिर पर पानी की देगची लिए हुए घर की ओर लौट रहा था। घर के करीब बरगद वाले बजरंग बली के सामने ही डोम जाति के एक गोरे से लड़के को क्या सूझा कि उसने अपनी अंगुली मेरे मुंह में डाल दी और भाग खड़ा हुआ। मैं तब सन्न रह गया और उसके हाथों में बसे मल की गंध मेरी याद का हिस्सा बन गई। मैंने घर में आकर इस घटना का जिक्र किया तो मेरी मां ने मुझे जीभ साफ कर लेने को कहा और थोड़ा गुड़ खिला दिया। घर के अन्य सदस्यों ने मुझसे मजे लिए लेकिन किसी ने बदला लेने की बात नहीं की। मेरे मन में भी कभी भी उसके प्रति बदला का भाव नहीं आया। गुस्सा तत्काल तो आया था लेकिन उससे ज्यादा मैं अचरज से भर गया था। 
 
मेरे जेहन में बहुत दिनों तक यह बात घूमती रही कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया? उस लड़के से मेरी कभी बात नहीं होती थी। बस हम दोनों एक-दूसरे को शक्ल से पहचानते थे। वह लड़का मेरे घर से कोई डेढ़ किलोमीटर दूर हमारे मोहल्ले के एक हाशिये पर 25-50 ‘डोम’ जाति की बस्ती के किसी परिवार का एक सदस्य था। उन परिवारों के किसी मर्द की शक्ल आज मुझे याद नहीं है। निश्चित तौर पर वे हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण काम करते थे, लेकिन कभी भी उन्हें घर-परिवार या मोहल्ले में कभी महत्व दिया गया हो, इसकी कोई याद नहीं आती है। हमें याद भी वैसी ही बातें रहती हैं, जो हमारे सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक ताने-बाने में महत्व पाती हों। हां, मुझे इस छोटी सी बस्ती की एक औरत की याद जरूर है। मेरे घर मल उठाने के लिए आने वाली मौसी की मुझे खूब याद है। असल में वो मेरी मां को दीदी पुकारती और हम सभी भाई-बहन उन्हें मौसी। वे हर दूसरे या तीसरे दिन आतीं और मुझसे कहती बेटा पानी डाल दहो। मैं सांस रोककर पानी डालता और मौसी नाक पर साड़ी का कोना बांध करके कनस्तर के बाहर गिरे मल को झाड़ू लगाकर साफ करतीं। इसके बाद टूटी हुई प्याली में मौसी को चाय दी जाती थी। घर के चैखटे पर बैठकर वे चाय पीती जातीं और अपना दुख-तखलीफ मां से साझा करती जातीं। मेरी मां भी उन्हें धैर्य से सुनतीं और बीच-बीच में समाधान भी देने की कोशिश करतीं। 
 
सिर पर मैला उठाने वाली ये औरतें नगर पालिका की कर्मचारी होती थीं। वे कभी हड़ताल पर जातीं तब भी मौसी हमारे घर आकर शौचालय की साफ-सफाई कर जातीं। आज मौसी और उस लड़के की याद अक्सर आती है। मौसी की याद उसकी मीठी जुबान और उसके मधुर व्यवहार की वजह से हो आती है, लेकिन उस लड़के की याद उस घटना की वजह से हो आती है जिसने मुझे मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद से पनपे गुस्से की वजह को समझने में मदद पहुंचाई है। मैं आज उसके व्यवहार की वजह से ही समाज की विसंगतियों को समझने के काबिल हो सका हूं। यही वजह है कि अब मैं उसकी अंगुलियों की गंध को अपनी जेहन में ताउम्र बसा लेने की हसरत रखता हूं। 
 
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