कुर्तुल आपा कल हमें छोड़कर चली गईं। इस्मत आपा ने बहुत पहले ही इस फानी जगत को अलविदा कह दिया था। लग रहा है, उर्दू साहित्य का कोई अमिट हस्ताक्षर नहीं, बल्कि हमारी जिंदगी से साँस चली गई हो ।
‘आग का दरिय ा ’ जब पहली बार पढ़कर खत्म की थी, तभी से यह सवाल परेशान करता रहा कि अब तक यह किताब कहाँ थी। यह पहले क्यों न मिली। हिंदी में इसका कोई जिक्र ही नहीं होता। सबकुछ कहा-सुना जाता है, पर ‘आग का दरिय ा ’ लावारिस किसी कोने में पड़ी है, जबकि इस कद और वजन की कोई दूसरी कृति समूचे उर्दू और हिंदी साहित्य में ढूँढे से भी न मिले ।
कुर्तुल-ऐन-हैदर की उम्र तब मात्र 32 वर्ष थी, जब उन्होंने ‘आग का दरिय ा ’ लिखा था। ‘आग का दरिय ा ’ सचमुच आग का दरिया ही था। इस उपन्यास ने ऐसी आग लगाई थी, जिसकी तपिश आज भी महसूस होती है। किस्सागोई के बहाने इतिहास कहने की यह शैली कुर्तुल आपा की अपनी विशेषता थी। बुद्ध के युग से लेकर ब्रिटिश हुकूमत के दौर और उसके बाद आजाद हिंदुस्तान की जैसी यथार्थ तस्वीर उन्होंने कथा के शिल्प में बुनी है, वह इतिहास को देखने की एक नई नजर देती है। अँग्रेजों द्वारा भारत के सांस्कृतिक मानस में दखल और सेंधमारी का इतिहास उपन्यास बहुत विश्वसनीय तरीके से हमें बताता है। यह उपन्यास वास्तव में किस्सागोई की शक्ल में भारत के सांस्कृतिक इतिहास का सबसे प्रामाणिक और भरोसेमंद दस्तावेज है।
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ऐसा ही एक और उपन्यास ‘आखिरी-ए-शब के हमसफ र ’, हिंदी में जिसका तर्जुमा ‘निशांत के सहयात्र ी ’ नाम से हुआ है, जंग-ए-आजादी के दौर में बंगाल और वर्तमान बांग्लादेश की सीमा पर रह रहे कुछ परिवारों की कहानी है और उस कहानी के बहाने हिंदुस्तान के उच्च वर्ग और आजादी की लड़ाई में उनकी भूमिका की पड़ताल भी। इस बहाने पल-पल बदलते जीवन और मनुष्य के अंतर्मन की कुछ बारीक झलकियाँ हैं और एक ऐसी आरोह-अवरोह से लबरेज अद्भुत किस्सागोई कि हाथ से लगी किताब आखिरी पन्ने तक पहुँचने से पहले छूटती ही नहीं ।
सन् 1927 में अलीगढ़ के आला घराने में कुर्तुल-ऐन-हैदर का जन्म हुआ था। माता-पिता दोनों ही अफसानानिगार थे। उन्हें भी किस्सागोई की लत बचपन से ही लग गई थी। वह लिखती हैं कि लिखे बगैर मेरा दिन पूरा नहीं होता। लिखना मेरे लिए मेरे रोजमर्रा के कामों का हिस्सा है। आपा उर्दू में लिखती और अँग्रेजी में पत्रकारिता करती थीं। ‘इलस्ट्रेटेड वीकल ी ’, ‘द डेली टेलीग्रा फ ’ और ‘इंप्रिं ट ’ में उन्होंने काम किया। काफी समय तक बीबीसी से भी जुड़ी रहीं। मर्दों की दुनिया के प्रति जज्बाती न होकर, उसे खुली निगाह से देखा-परखा और ताउम्र अकेली रहीं। दुनिया घूमने का उन्हें बेतरह शौक था। उन्होंने बड़ी सैर की, जिसका असर उनके लेखन में भी दिखता है। ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीज ो ’ की नायिका दुनिया की जाने किन-किन जगहों में भटककर मुंबई की उन्हीं गलियों में वापस लौट आती है, जहाँ से उसने अपने सफर की शुरुआत की थी। आपा से मेरी पहली मुलाकात इसी किताब के जरिए हुई थी। उसी का असर था, जो किताब के दबीज आकर और अपनी कम उम्र के बावजूद मैं ‘आग का दरिय ा ’ पढ़ने का साहस जुटा पाई ।
उनसे मिलने का नसीब कभी नहीं हुआ, पर उन्हें पढ़ते हुए जैसी झुरझुरी-सी महसूस होती थी, पुस्तक के साथ मन ख्यालों में उस कलम की भी कल्पना करने लगता, जिससे यह शब्द फूटे हैं, और एक ऐसी शख्सियत आँखों के सामने उभरती, जिसके सामने यह संसार बहुत बौना जान पड़ता है। पिछले कुछ समय से यह बात मुझे निरंतर परेशान कर रही थी कि हिंदी के लोग किस गहरी नींद में सोए हैं। कुर्तुल आपा के पास विचारों और अनुभवों का तो अकूत खजाना है। उसका एक हिस्सा भी अगर हम छू सकें, तो हिंदी साहित्य और हिंदी पाठकों का कैसा भला होगा, इसका अंदाजा शायद हमें भी दूर-दूर तक नहीं है। मुझे लगता, राजधानी हिंदी के दिग्गजों-विद्वानों से भरी है, पर किसी को यह ख्याल क्यों नहीं आ रहा। हिंदी की पत्रिकाएँ नामवरों से लेकर जाने किन-किन वरों के ऊलजलूल साक्षात्कारों से भरी होती हैं, पर उसी दिल्ली शहर के किसी गुमनाम घर में पड़ी हमारी प्यारी आपा की कोई सुध क्यों नहीं ले रहा। लोग बेचैन नहीं हैं कि जाते-जाते उस अथाह समंदर की कुछ बूँदें ही हम समेट लें, अपने आने वाले समय के लिए ।
पर नहीं। ऐसा कुछ न हुआ। आपा हमें छोड़कर चली गईं और हमारे लिए छोड़ गई हैं, ‘एक लड़की की जिंदग ी ’, ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीज ो ’, ‘चाँदनी बेग म ’, ‘आखिरी-ए-शब के हमसफ र ’, ‘गर्दिश-ए-रंगे चम न ’ ‘मेरे भी सनमखान े ’ और ‘शफीनाए गमे दि ल ’ के रूप में शब्दों का ऐसा अनोखा संसार, जिसकी यात्रा के आनंद से गुजरने का सुख इस दुनिया के सबसे बदनसीबों के नसीब में ही नहीं होगा।