वासना के भूखे अकबर को दुर्गावती का करारा जवाब...

रामसिंह शेखावत
दुर्गावती नाम था उसका। साक्षात दुर्गा थी वह। बुंदेलखंड के प्रसिद्ध चंदेल राजपूतों में उसका जन्म हुआ था। वंश इतना उच्च माना जाता था कि चित्तौड़ के महाराणा संग्रामसिंह (राणा सांगा) की बहन भी इस वंश में ब्याही थी। दुर्गावती का विवाह हुआ था, गोंड राज परिवार  में। विवाह के कुछ ही वर्षों के पश्चात दुर्गावती को एक पुत्र हुआ था‍ जिसका नाम वीर नारायणसिंह रखा गया। 
वीर नारायण अभी बालक ही था कि दुर्गावती के पति की मृत्यु हो गई। उस अराजक मुस्लिम युग में एक जवान, सुंदर विधवा हिन्दू रानी को कौन चैन से रहने देता। दुर्गावती का राज्य तीन ओर से मु‍स्लिम राज्यों से घिरा था। पश्चिम में था निमाड़-मालवा का शुजात खां सूरी, दक्षिण में खानदेश का मुस्लिम राज्य और पूर्व में अफगान। तीनों ने असहाय जान दुर्गावती के राज्य पर हमले प्रारंभ कर दिए। दुर्गावती घबराईं नहीं। उस राजपूत बाला ने गोंडवाने के हिन्दू युवकों को एकत्र कर एक सेना तैयार की और स्वयं उसकी कमान संभाल तीनों मुस्लिम राज्यों का सामना किया। 

हेमचन्द्र भार्गव उर्फ हेमू की निर्मम हत्या
 
दुर्गावती ने तीनों मुस्लिम राज्यों को बार-बार युद्ध में परास्त किया। पराजित मुस्लिम राज्य इतने भयभीत हुए कि उन्होंने गोंडवाने की ओर झांकना भी बंद कर दिया। इन तीनों राज्यों की विजय में दुर्गावती को अपार संपत्ति हाथ लगी। 

अपने गुरु का हत्यारा अकबर 'महान'
 
आईने-अकबरी में अबुल फजल का कहना है कि दुर्गावती बड़ी वीर थी। उसे कभी पता चल जाता था कि अमुक स्थान पर शेर दिखाई दिया है, तो वह शस्त्र उठा तुरंत शेर का शिकार करने चल देती और जब तक उसे मार नहीं लेती, पानी भी नहीं पीती थीं। 

हवस के प्यासे अकबर ने रूपमती के लिए मालवा-निमाड़ को खून में डुबो दिया था
 
तीनों मुस्लिम राज्यों के खामोश हो जाने के बाद गोंडवाने में शां‍ति छा गई। दुर्गावती ने प्रजा के सुख के लिए कुएं, बावड़ियां, तालाब खुदवाए, धर्मशालाएं बनवाईं, मंदिर बनने लगे। दुर्गावती प्रजा के मन पर शासन करने लगी। लोग उसे देवी के रूप में पूजने लगे।
 
राज्य की सुख-शांति का दुश्मन बन गया अकबर... पढ़ें अगले पेज पर....
 
 

सुख-शांति का दुश्मन बना अकबर : गोंडवाना एक हरा-भरा प्रदेश था। अनावृष्टि नहीं होती थी तो अकाल भी नहीं पड़ता था। दुर्गावती के तेज और वीरता से गोंडवाने पर आक्रमण होने भी बंद हो गए थे इसलिए संपूर्ण प्रदेश में शांति थी। व्यापार फल-फूल रहा था। यह प्रथम अवसर था, जब हरियाणा और राजस्थान का व्यापारी समुदाय गोंडवाना में बसने लगा था। इस काल में गोंडवाना एक समृद्ध राज्य था। सारे भारत का धन खिंचकर गोंडवाना आ रहा था। 
 
इन्हीं दिनों युवराज वीर नारायण 18 वर्ष का हो गया। दुर्गावती ने राज्य की बागडोर सौंपनी चाही किंतु उसने स्वीकार नहीं किया। अब दुर्गावती ने वीर नारायण के विवाह का निश्चय किया। पुरगढ़ा के राजा की 16 वर्षीय पुत्री अत्यंत सुंदर थी। दुर्गावती ने उससे वीर नारायण के विवाह का प्रस्ताव भेजा।
 
पुरगढ़ा के राजा ने स्वीकृति के साथ एक निवेदन भेजा कि विवाह की रस्म पुरगढ़ा में करना खतरे से खाली नहीं है। अकबर के प्रस्ताव समस्त उत्तर भारत के रजवाड़ों को गए हैं कि वे अपनी कन्याओं के डोले आगरा भेजें। यही प्रस्ताव पुरगढ़ा भी आया है। अत: विवाह की रस्म गोंडवाने की राजधानी गढ़ कटंग में पूरी की जाए तो विघ्न की आशंका नहीं रहेगी।
 
इसी योजनानुसार राजकन्या गढ़ कटंग पहुंचा दी गई, लेकिन अकबर के गुप्तचर फकीरों के वेश में सारे भारत में फैले हुए थे। उसे सूचना मिल गई कि पुरगढ़ा की राजकन्या गोंडवाना पहुंच गई है। सुंदर स्त्रियों और धन के लोभी अकबर ने बुंदेलखंड में डेरा डाले पड़े कड़ा के सूबेदार अपने सेनापति आसफ खां को गोंडवाने पर आक्रमण का हुक्म दिया।
 
आसफ खां जिरह-बख्तर से लैस अपने 50,000 मुगल घुड़सवारों के साथ गोंडवाने पर टूट पड़ा। रास्ते के नगर-ग्रामों को उजाड़ता आसफ खां मंडला के नजदीक जा पहुंचा। इधर विवाह की ‍तिथि न निकलने के कारण पुरगढ़ा की राजकन्या कुंवारी बैठी थी और अब युद्ध सामने था अत: विवाह की बात सोची भी नहीं जा सकती थी।
 
मुगलों के अत्याचार की कहानियां बढ़-चढ़कर गोंडवाने में फैल रही थीं। अत: दुर्गावती के कायर सैनिक सेना छोड़कर भागने लगे थे। इन अफवाहों के फैलाने में अकबर के फकीर गुप्तचरों का प्रमुख हाथ था। 
 
फिर शुरू हुआ गढ़ा-मंडला का भीषण युद्ध... पढ़ें अगले पेज पर...
 
 

गढ़ा-मंडला का भीषण युद्ध : सन् 1564 का वर्ष था। भारत के सारे हिन्दू राजे-रजवाड़ों ने इस्लाम के सम्मुख सिर झुका दिया था। बचे थे मात्र उत्तर भारत के चित्तौड़ और गोंडवाने के राज्य व दक्षिण भारत के विजय नगर का साम्राज्य। इस वर्ष अकबर द्वारा गोंडवाने की स्वतंत्रता भी नष्ट हो रही थी। 
 
लूटमार-आगजनी करती बढ़ी चली आ रही मुगल फौजों का सामना किया दुर्गावती ने गढ़ा-मंडला के मैदान में। अपने 20 हजार घुड़सवारों और 1 हजार हाथियों के साथ दुर्गावती मुगल फौज के सामने आ डटी। दुर्गावती के घुड़सवारों के पास न जिरह-बख्तर थे न घोड़ों पर। इधर मुगल सैनिक सिर से कमर और हाथों तक लोहे के कवच से सुरक्षित थे। फिर 20 हजार हिन्दू घुड़सवारों के सामने 50 हजार की विशाल मुगल सेना थी।
 
आसफ खां ने अपने दाएं-बाएं के 10 हजार सवारों को घूमकर दुर्गावती की फौजों के पार्श्व से तीर बरसाने का हुक्म दिया। सामने से 10 हजार घुड़सवार हिन्दू फौजों को दबाने में लगे। तीन ओर के हमले से हिन्दू सैनिक परेशान हो उठे, तब दुर्गावती अपने 1 हजार हाथियों के साथ मुगलों की मध्य सेना पर टूट पड़ी। एक विशाल हाथी पर दुर्गावती सवार थी। चारों ओर थे उसके अंगरक्षक घुड़सवार। पास ही एक अन्य हाथी पर 18 वर्षीय वीरनारायण मां की सहायता कर रहा था। दोपहर बाद प्रारंभ हुए इस युद्ध में 2-3 घंटे की लड़ाई के बाद दोनों ओर के सैनिक थककर चूर हो गए। तब संध्या 4 बजे आसफ खां ने अपने ताजा दम 20 हजार घुड़सवारों को हमले का हु्क्म दिया। थके हिन्दू सैनिक इन तरोताजा घुड़सवारों का सामना नहीं कर पाए।
 
सैनिक मरते गए और कतारें टूट गईं। बढ़ते मुगल सैनिकों ने दुर्गावती और उनके पुत्र वीरनारायण को घेर लिया। दोनों हाथियों की रक्षी कर रहे हिन्दू अंगरक्षकों की पंक्तियां भी टूटने लगीं। अब मां-बेटे पूरी तरह घिर चुके थे किंतु क्रोध से उफनती शेरनी दुर्गा मुगलों के लिए काल बन गई। दुर्गावती के धनुष से चले तीर मुगलों के कवच चीर उन्हें मौत की नींद सुलाने लगे। उधर मुगलों के बाण की वर्षा से वीरनारायण घायल हो गए। लेकिन मां के वीर बेटे ने रणक्षेत्र नहीं छोड़ा। वह घायल होने के बाद भी मुगलों पर तीर बरसाता रहा। तभी दुर्गावती ने अपने महावत को वीरनारायण के हाथी के पास अपना हाथी ले चलने का आदेश दिया। रणक्षेत्र में अटे-पड़े मुगल घुड़सवारों के बीच से लड़ती-भिड़ती दुर्गावती अपने बेटे के पास पहुंची और वीरनारायण से पीछे हटकर चौरागढ़ चले जाने को कहा। वीर बालक हटने को तैयार नहीं था।
 
बड़ी समझाइश के बाद उसके अंगरक्षक उसे रणक्षेत्र से निकाल ले जाने में सफल हुए। इधर दुर्गावती चट्टान बनी मुगलों का मार्ग रोके रही। अंधेरा घिरने लगा था और दोनों ओर के सैनिक पीछे हटकर अपने शिविरों को लौटने लगे थे। मृतकों की देह रणक्षेत्र में ही पड़ी रही और घायलों को उठा-उठाकर शिविर में लाया जा रहा था। दुर्गावती ने रात्रि में ही बचे-खुचे सैनिकों को एकत्र किया।
 
कुछ तो मारे गए थे, लगभग 10 हजार घुड़सवार वीरनारायण के साथ चौरागढ़ चले गए थे। कुल 5 हजार घुड़सवार और 500 हाथी दूसरे दिन के युद्ध के लिए शेष बचे थे। पराजय निश्चित थी। यह देख दुर्गावती ने अपने पुत्र वीरनारायण के पास एक संदेश भेजा- 'बेटा अब तुम्हारा मुख देखना मेरे भाग्य में नहीं है। अपना इलाज करवाना व भावी युद्ध के लिए तैयार रहना, मैं हटूंगी नहीं, तेरे पिता के पास स्वर्ग जाना चाहती हूं। मेरे मरने के बाद गोंडवाने की रक्षा करना। भगवान यदि सफलता दे तो अच्‍छा है, लेकिन यदि पराजय हुई तो हिन्दू महिलाओं को मुसलमानों के हाथ मत पड़ने देना। उन्हें अग्नि देवता को सौंप देना। समय नहीं है अत: युद्ध के पूर्व जौहर की व्यवस्था कर लेना।
 
अपने पुत्र को समाचार ‍भेज दुर्गावती अपने मुट्ठीभर सैनिकों के साथ शिविर से निकलीं। सामने खड़ा था विशाल मुगल रिसाला। कल के युद्ध में अतिरिक्त सेना के कारण मुगलों की क्षति कम हुई। दुश्मन के निकट पहुंच दुर्गावती ने हाथी के होदे में खड़े हो अपने सैनिकों पर एक नजर फेरी और अपना धनुष उठा गरज पड़ी- 'हर-हर महादेव'। सैनिकों ने विजय घोष किया- 'हर-हर महादेव' और हिन्दू सैनिक मृत्यु का आलिंगन करने मुगल सेना पर टूट पड़े।
 
500 हाथियों पर बैठे 1 हजार सैनिक और साथ के 5 हजार घुड़सवारों को मुगल रिसाले ने चारों ओर से घेर लिया। एक-एक कर हिन्दू घुड़सवार गिरते चले गए, सेना सिकुड़ती गई। अब मरने की बारी थी गज सवारों की। मुगलों की निगाह हाथी पर सवार 33 वर्षीय सुंदर दुर्गावती पर लगी हुई थी। आसफ खां ने आदेश दिया कि आसपास के हाथी सवारों को समाप्त कर दुर्गावती को जीवित पकड़ लो। इसे शहंशाह को सौंप इनाम पाएंगे।
 
धीरे-धीरे सारे हाथी समाप्त हो गए। जिधर दृष्टि डालो उधर ही मुगल घुड़सवार छाए थे। मुगलों का घेरा कसने लगा, लेकिन दुर्गावती के तीरों का बरसना बंद नहीं हुआ। तभी तीरों की एक बौछार दुर्गावती के हाथी पर लगी। महावत मारा गया। एक तीर दुर्गावती के गले और एक हाथ को भेद गया। असह्य पीड़ा से धनुष हाथ से छूट गया। हाथी को घेरकर खड़े मुगल सैनिक हाथी पर चढ़ने का प्रयास करने लगे। कुछ गंदी फब्तियां भी कस रहे थे। प्रतिष्ठा और बेइज्जती में गजभर का फासला था। दुर्गावती ने परिस्‍थिति को भांपा और शीघ्रता से कमर में खुसी कटार खींची- 'जय भवानी...!' गरज समाप्त होते ही छप्प से कटार अपने हृदय में मार ली। पंछी उड़ चुका था। दुर्गावती की निष्प्राण देह हौदे में पड़ी थी।
 
अकबर महान या शांति का भक्षक? : एक शांत राज्य, जहां के लोग सुखपूर्वक अपना जीवन जी रहे थे। किसी पड़ोसी पर आक्रमण नहीं कर रहे थे। ऐसे शांत राज्य को केवल अपने धन की पिपासा और स्त्रियों के लोभ में अकबर ने अकारण नष्ट कर डाला। गोंडवाने में लाखों हिन्दू मारे गए।
 
इतिहास लेखक स्मिथ कहता है कि भविष्य में भारतीय राज्यों को हड़पने वाले डलहौजी को भी अकबर ने मात कर दिया। नागरिकों की सुख-शांति को अकारण हाहाकार में बदल देने वाला व्यक्ति नरपिशाच तो हो सकता है, महान कदापि नहीं हो सकता।
 
चौरागढ़ का जौहर, जब 5000 स्त्रियां अग्निकुंड में कूद गईं.... पढ़ें अगले पेज पर....
 
 
 

चौरागढ़ का जौहर : गढ़ा-मंडला के दूसरे दिन के युद्ध के समाचार युद्ध से लौटे सैनिकों द्वारा वीरनारायण को मिले। अब सैनिक कभी भी चौरागढ़ आ सकते हैं। अत: चौरागढ़ में जौहर की तैयारियां प्रारंभ हुईं। रुई, लाख, राल, घास, लकड़ी एकत्र कर किले में लाए जाने लगे। शीघ्रता में सूखे हरे जैसे भी निकट मिले, वृक्ष काटकर किले में लाए गए। किले की दीवार के निकट एक बड़े चौक में लकड़ियां बिछा दी गईं। उन पर घास, राल, लाख, रुई जगह-जगह लगा दी गई। अब किले के दरवाजे बंद कर वीरनारायण मुगलों की राह देखने लगा।
 
लेकिन आसफ खां दो माह तक चौरागढ़ नहीं आया। वह जानता था, गोंडवाना के बचे सैनिक किले में शरण लिए हुए हैं। गोंडवाना पूर्ण आरक्षित है। अत: वह दो माह तक चौरागढ़ के चारों ओर के नगर-ग्रामों को लूटत-उजाड़ता रहा। आसफ खां की इस कार्रवाई से किले में रसद पहुंचना बंद हो गई और बीते इन दो माह में किले की रसद धीरे-धीरे समाप्त हो गई। ठीक दो माह बाद आसफ खां ने चौरागढ़ घेर लिया।
 
गढ़ के भीतर थे 10 हजार घुड़सवार और आसपास के ग्रामों से आई संभ्रांत घरों की कुलवधुएं, बेटियां राजपरिवार की महिलाएं, सरदारों के परिवारों की महिलाएं, कुल 5 हजार स्त्रियां किले में थीं। वीरनारायण ने प्रमुख सरदारों की बैठक बुलाई और दूसरे दिन जौहर करने का निश्चय किया। 
 
प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में गढ़ के सभी हिन्दू उठे, स्नान किया। महिलाओं ने पूर्ण श्रृंगार किया और एकसाथ मंदिर में जा सामूहिक आरती की। फिर सभी महिलाएं पुरुष अंतिम विदा के लिए एक-दूसरे से गले मिले। पति-पत्नी, भाई-बहन, बाप-बेटी भरे कंठ और सजल आंखों से विदा दे रहे थे। मंदिर से चला हिन्दू नर-नारियों का समूह चिता के निकट आयाल एक-एक कर महिलाएं चिता पर चढ़ने लगीं। पुरुष वर्ग भी घी के डिब्बे चिता पर डालने लगा। 
 
वीरनारायण ने अपने दो विश्वस्त सैवकों को भोज कायस्थ और भिकारी रूमी को बुला जौहर की जिम्मेदारी सौंपी। दो सेवकों और जौहर की पूजा के लिए एक ब्राह्मण को छोड़ वीरनारायण केसरिया वस्त्र पहन सैनिकों के साथ द्वार पर आ डटा। कुछ सैनिक दुर्ग दीवार पर तैनात कर दिए गए।
 
दुर्ग की दीवार पर खड़े ब्राह्मण ने वेद मंत्रों का पाठ प्रारंभ किया। ब्राह्मण रोता जाता था और वेद मंत्र पढ़ता जाता था। स्वाहा की ध्वनि के साथ चिता के चारों ओर खड़े लोग चिता पर अक्षत-कंकू, पुष्प बरसा रहे थे। चिंता पर बैठी महिलाएं भीड़ में अपने पति, पिता, भाई को पहचान हाथ जोड़ अंतिम विदा दर्शन ले रही थीं। गोद में बैठे नन्हे बालकों को उनकी माताएं उंगली उठा पिता को दिखा रही थीं। महिलाएं सुबक रही थीं, कोई हंस रही थीं। लेकिन नेत्र सभी के भीगे थे। पुरुष वर्ग दांत भींचे, दृढ़ संकल्प लेता यह दृश्य देख रहा था।
 
वेद पाठ पूरा हुआ। दुर्ग-दीवार पर खड़े ब्राह्मण ने कहा- मेरी बेटियों, हम हिन्दू आज तुम्हारी रक्षा करने में असमर्थ हैं। तुम्हारी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए तुम्हें अग्नि देवता को सौंप रहे हैं। मैंने इन्हीं अग्नि देवता की सप्तवदी करवा कभी आप में से कइयों को विवाह-सूत्र में बांधा था। मुझे क्षमा करना, आज विवाह सूत्र में बांधने वाला ब्राह्मण तुम्हें अग्नि में होम कर रहा है।
 
ब्राह्मण के संकेत पर भोज कायस्थ ने चिता में आग लगा दी। चिता धूं-धूंकर जल उठी। चिता की लपटें उठती रहीं और हिन्दू सैनिकों का प्राणों से मोह छूटता गया। दोपहर बीतने तक चिता शांत होने लगी। अब वीर नारायण ने दुर्ग द्वार खोलने की आज्ञा दी। 
 
जिनकी मां-बहनें-बेटियां और प्रियतमाएं उनकी आंखों के सामने जल मरी थीं, वे हिन्दू सैनिक भूखे बाघ की तरह गरजते हुए मुगलों पर टूट पड़े। मुगल सैनिकों में खलबली बच गई। हिन्दू तो मरने के लिए सिर पर कफन बांधकर ही निकले थे, साक्षात महाकाल बने तलवार चला रहे थे, किंतु मुट्ठीभर हिन्दू कब तक लड़ते? रात होते-होते सभी समाप्त हो गए लेकिन एक धाक छोड़ गए मुगलों के दिलों पर, न तो रात में न दूसरे दिन मुगलों का साहस हुआ कि किले के निकट जा पाएं। 
 
दो दिन तक आसफ खां मरे मुगल सैनिकों के लिए कब्रें खुदवाता और उन्हें दफनाता रहा। चौथे दिन मुगल सैनिक किले के निकट आए। द्वार पर आवाज लगाई। किले में बचे थे मात्र तीन व्यक्ति, ब्राह्मण, भोज कायस्थ और भिकारी रूमी। भिकारी ने द्वार खोला। मुगल सैनिक लूट के उद्देश्य से किले में फैल गए।
 
कलाकृतियों का शत्रु अकबर : मुगलों को लूट में मिले अलाद्दीन खिलजी के समय के सोने की अशर्फियों से भरे सौ घड़े, ढला-अनढ़ला सोना, अलंकृत पात्र, जवाहरात, मोती, सोने-चांदी की देवताओं और पशु-पक्ष‍ियों की मू‍र्तियां, रत्नजड़ित मूर्तियां, दुर्लभ चित्र। इनके साथ मुगलों को मिली दो अभागी राजकन्याएं एक 18 वर्षीय कमलावती, जो दुर्गावती की बहन थी और दूसरी पुरगढ़ा की 16 वर्षीय राजकुमारी। ये दोनों चिता के किनारे रखे एक बड़े गीले वृक्ष की बड़ी डाल की ओट में जीवित बच गई थी। धुएं के कारण भोज कायस्थ इन्हें देख नहीं पाया था।
 
इन अभागी राजकन्याओं के साथ लूट में मिला सारा सामान और 200 हाथी आसफ खां ने अकबर के पास आगरा भिजवा दिए। धन के लोभी अकबर ने इस दुर्लभ सामग्री को गलवा दिया। दोनों राजकन्याओं से जबरन अकबर के द्वार की देहरी चूमने को कहा गया और ये दोनों अभागी अकबर की रखैल बना ली गईं। (स्मिथ पृष्ठ 69)
 
स्वतंत्र भारत के नागरिक विचार करें, क्या दुर्लभ भारतीय कला-संपदा को नष्ट करने वाला भारत में महान कहला सकता है? क्या निरीह, असहाय अबलाओं को बुरी तरह अपमानित करने वाला उन्हें रखैल के निम्न स्तर पर भोगने वाला महान कहलाने के योग्य है?

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