यशोधर्मन पुरातत्व संग्रहालय, संरक्षण की जगह ही मांग रही 'संरक्षण'- भाग 2

मंदसौर क्षेत्र के पुरातत्व संग्रहालयों की दुर्दशा पर की गई रिपोर्ट का दूसरा अंश

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बदहाली की शिकार विरासत, जानिए क्या है सच? एक पक्ष यह भी...
-अथर्व पंवार 
यशोधर्मन पुरातत्व संग्रहालय की बदहाली पर प्रस्तुत रिपोर्ट के बाद पड़ताल को आगे बढ़ाया गया। प्राप्त तथ्यों और जानकारियों के आधार पर हमने इस विषय का एक और पक्ष देखा। असल में ये मूर्तियां आसपास के गांवों के निवासी यहां छोड़ जाते हैं। मंदसौर और नीमच के ग्रामीण क्षेत्र में इस प्रकार की पुरातात्विक वस्तुओं का अथाह भंडार है।  
 
जब स्थानीय निवासियों को खेती करते समय जमीन में से या विचरण करते समय जो कुछ प्रतिमाएं पड़ी हुई मिल जाती है तो वे लोग उन्हें उठाकर संग्रहालय में छोड़ जाते हैं। जो कुछ प्रतिमाएं अच्छी अवस्था में होती है उसे तो सिन्दूर लगाकर पूजन करने लग जाते हैं और जो खंडित होती हैं उन्हें संग्रहालय में रख जाते हैं। पर यहां कुछ सिन्दूर लगी मूर्तियां भी पड़ी हुई है जो ठीकठाक अवस्था में भी है जिसे यहां क्यों छोड़ा गया इस पर अभी भी संशय है। 
 
विषय की गहराई में जाने पर हमने पाया है कि संग्रहालय परिसर में संरक्षित की गई मूर्तियों के बीच ही ग्रामवासी इन लाई गई मूर्तियों को भी रख देते थे जिस कारण यह संग्रहालय की मूर्तियों में मिल जाती थी, इसे अलग-अलग करने की प्रक्रिया में इन सभी लाई गई मूर्तियों को एकत्रित कर के कोने में रखा गया। 
 
विशेषज्ञों का कहना है कि यह लाई गई प्रतिमाएं 'non antiquity' श्रेणी में आती है इसी कारण इनका संरक्षण नहीं हुआ। अगर यह सभी प्रतिमाएं पुरातत्व विभाग की सूची में होती तो इनका संरक्षण अवश्य होता। 
 
पर प्रश्न है कि भारत में 'हर कंकर में शंकर' के विचार से प्रतिमाओं को पूजा जाता है, देश में ऐसे कई खंडित शिवलिंग है जिनको पूजा जाता है, धर्म की रक्षार्थ अनेक संगठन इतिहास के संरक्षण की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, तो क्या वो सभी विचार यहां नहीं अमल में लाए जा सकते हैं? क्या इस प्रकार इन देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को कोने में ढेर लगा कर पटक देना धर्म की अवमानना नहीं है?
 
पुरातत्व की श्रेणियां-
पुरातत्व विभाग को जब भी कोई प्रतिमा या प्राचीन अवशेष मिलते हैं तो वह उसे अलग-अलग श्रेणियों में रखता है। इन्हीं के अनुसार उनका संरक्षण होता है। श्रेणियां केटेगरी A से D तक होती है। बहुमूल्यता,शिल्पकार्य,विचित्र और अनोखी, प्राचीनता,सुंदरता,स्थिति,आकार,स्थान,इतिहास,प्रमाण इत्यादि ऐसे पैमाने हैं जिनके आधार पर इन प्रतिमाओं को श्रेणी में रखा जाता है। जो प्रतिमा इन पैमानों पर जितना अधिक खरी उतरती है उन्हें उतनी ही उच्च श्रेणी में रखा जाता है और इन्हें संरक्षण भी अधिक मिलता है। यह सभी ANTIQUITY श्रेणी में आती है। इनको बाकायदा पुरातत्व विभाग द्वारा अपने रिकॉर्ड में रखा जाता है जिसके लिए इन्हें सूचीबद्ध किया जाता है और इनपर एक क्रमांक भी डाला जाता है। 
 
जो प्रतिमाएं या निर्माण अवशेष बहुत ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होते हैं और पुरातत्व के पैमानों पर नहीं उतरते हैं तो उन्हें NON ANTIQUITY श्रेणी में रखा जाता है। 
खुले में रखे गए प्रतिमाएं या निर्माण अवशेष मौसम की मार से कैसे बचते हैं? 
यह प्रश्न इस विषय में रूचि रखने वाले व्यक्ति के मन में एक बार तो आता ही होगा। जानकारों से यह पूछने पर हमने उनसे उत्तर पाया कि जो प्रतिमाएं या निर्माण अवशेष खुले में रखी जाती है और जो पानी,धूप,शीत के सीधे संपर्क में आती है,उन पर CHEMICAL TREATMENT होता है। इस TREATMENT से उनपर 5-6 वर्ष तक कुछ नहीं होता है। हर 5-6 वर्ष के अंतराल में इन खुले में रखी हुई वस्तुओं का संरक्षण का कार्य होता है। सरल भाषा में इन वस्तुओं पर एक लेप लगा दिया जाता है जिससे इन पर मौसम की मार नहीं लगती। जो वस्तुएं बाहर रखी हुई होती है वह C या D केटेगरी की होती है।
 
ANTIQUITY का तर्क हिंगलाजगढ़ में अनुचित-
हमारे पास यह भी प्रमाण थे कि पुरातत्व विभाग और अन्य जिम्मेदार लोगों की अनदेखी मात्र मंदसौर संग्रहालय में ही नहीं हो रही बल्कि नीमच और मंदसौर के अन्य स्थानों पर भी हो रही है। इसी में एक स्थान है हिंगलाजगढ़ का किला। हिंगलाजगढ़ का किला अतिप्राचीन है जहां परमारों से लेकर होलकर तक ने राज किया। इसके अनेक प्रमाण यहां मिलते हैं। यहां से मिली अनेक बहुमूल्य प्रतिमाएं मंदसौर, भानपुरा, भोपाल और इंदौर के संग्रहालयों में रखी गई है।
 
हिंगलाजगढ़ में भी एक संग्रहालय है जिसे कचहरी कहा जाता है। यहां भी अनेक ऐसे अवशेष रखे हैं पर इस संग्रहालय के सामने ही ऐसे ही प्राचीन वस्तुओं को एक मलबे का ढेर के रूप में फेंक रखा है। इसी ढेर में अपशिष्ट पदार्थ और एक कचरापेटी भी फेंक रखी है। इन पुरातात्विक अवशेषों पर बाकायदा पुरातत्व विभाग द्वारा दिए गए क्रमांक भी प्रत्यक्षरूप से देखे जा सकते हैं, जिससे यह ज्ञात होता है कि यह सभी ANTIQUITY की श्रेणी में आती है इनका संरक्षण का अधिकार बनता है। यहां पुरातत्व विभाग द्वारा निशान लगे अवशेष ऐसे बिखरे हैं कि जब किसी को जूतों के बंद बांधना होते हैं तो इन्हीं पर पैर रखा जाता है। किले में सीढ़ियों के निकट ही पड़ा हुआ एक 'अमलक' घूमने आने वालों के इसी उपयोग में आता है। तथ्यों से अवगत कराने पर हमने जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों से उत्तर पाया कि इन सभी को जब हमारे पास और अधिक स्थान होगा तो इन्हें उचित ढंग से रखवाया जाएगा। 
 
पर प्रश्न यह है की क्या तब तक इन ऐतिहासिक प्रमाणों को यूं ही एक मलबे के रूप में पड़े रहने दिया जाएगा ? इनको उठाकर कम से कम सम्मानजनक स्थिति में रखने के रूप में क्या इसे इतिहास को आदर देना नहीं मान सकते?
 

उद्धार जल्द होगा- यशोधर्मन पुरातत्व संग्रहालय मंदसौर की दयनीय अवस्था पर हमने इस विभाग की देख रेख करने वाले जिम्मेदार व्यक्तियों से भी संपर्क किया। उनके अनुसार इस भवन की स्थिति चिंताजनक थी और उन्होंने यह भी माना कि यहां देखरेख का अभाव था, साथ ही भवन की मरम्मत के लिए फाइल और बजट की प्रक्रिया हो चुकी है और अब संग्रहालय में बिजली का कार्य भी आरम्भ हो चुका है।
 
पुरातत्व के क्षेत्र के विशेषज्ञों और इस विषय में रूचि रखने वालों का मानना है कि धरोहरों के संरक्षण के विषय में जब स्थानीय जनता,स्थानीय प्रशासन और स्थानीय नेतृत्व ही आगे आकर अपनी धरोहरों का संरक्षण करने लगेंगे तो पुरातत्व विभाग की आवश्यकता आंशिक रूप में रह जाएगी। विभाग का उद्देश्य यही रहता है कि जिन प्रतिमाओं को जहां से पाया गया है उनका संरक्षण उसी स्थान पर हो। हर वस्तु को संग्रहालय में रखने से अधिक उचित यह होगा कि उन्हें उसी स्थान पर ही संरक्षण मिले जिससे उस क्षेत्र के गौरवशाली इतिहास से लोग अवगत हो सके। वो यह जान सके कि उनकी भूमि, उनकी कर्मभूमि, उनकी जन्मभूमि क्यों पावन है और क्यों अपने मस्तक पर लगाने योग्य है। इसके लिए आपको, हमको और सभी लोगों को जागरूक होना होगा। लोग इन सभी वस्तुओं को टूटे फूटे पत्थर न मानकर अपने पूर्वजों के अंश मानें। जितना प्रेम लोग अपने घरों से और अपनी वस्तुओं से करते हैं, उतना ही इन वस्तुओं से भी करें जो कभी हमारे पूर्वजों की पूंजी होगी और आज भी उनके वैभव की गाथा कह रही हो। यह सभी पत्थर के टुकड़े नहीं है, यह तो वह रत्न है जिसके कारण हम विश्वगुरु और सोने की चिड़िया के रूप में पहचाने जाते थे।
यशोधर्मन पुरातत्व संग्रहालय, संरक्षण की जगह ही मांग रही 'संरक्षण'

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