शंकर मठों की परंपरा और आधुनिक पेंच

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आदि शंकराचार्य का जन्म केरल के कालड़ी गाँव में ऐसे समय हुआ जब भारत में वैदिक सनातन धर्म को ह्रास हो रहा था। मात्र 16 वर्ष की आयु में स्वामी गोविन्द पाद से संन्यास ग्रहण कर संपूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण कर सनातन धर्म की रक्षा की। इतिहासकारों के अनुसार ईसा की आठवीं शताब्दी में जन्म (पौराणिक मत के अनुसार ढाई हजार साल पहले) आदि शंकर ने भारतीय धर्म की पताका फहराने के लिए देश की चारों दिशाओं में चार प्रधान मठों की स्थापना की।

चार वेदों की स्वाध्याय व्यवस्था के लिए जिन प्रमुख चार मठों की उन्होंने स्थापना की उनमें उत्तर में बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ है जहाँ अथर्व वेद की संपूर्ण शाखाओं के पठन-पाठन की व्यवस्था है।

पश्चिम द्वारका में शारदामठ की स्थापना कर सामवेदीय शाखा प्रशाखाओं के गहन चिंतन का नियम निर्धारित कर तत्वमसि महावाक्य प्रदान किया पूर्व में गोवर्धन पीठ की स्थापना कर वहाँ के आचार्य के लिए ऋग्वेद पठन-पाठन की व्यवस्था के साथ प्रज्ञानं ब्रह्म महावाक्य प्रदान कर सनातन परंपरा की रक्षा का नियम निर्धारित किया गय ा।

साथ ह ी दक्षिण भारत के कर्नाटक मे श्रृंगेरी पीठ की स्थापना कर वहाँ की आचार्य परंपरा के लिए यजुर्वेद के पठन-पाठन, प्रचार-प्रवचनों की आचार संहिता तय करते हुए 'अहं ब्रह्मास्मि' महावाक्य निश्चित किया साथ ही चारों मठों की परिधि एवं कार्य क्षेत्र के नियम निर्धारित करते हुए निर्देश दिया कि यदि कोई धर्म विरुद्ध पंथ प्रारंभ हो तो उसे हतोत्साहित करें। भारतवर्ष का वैदिक सनातन धर्म एवं दर्शन शंकराचार्य परंपराओं से उसी प्रकार होता था जैसे बाहरी शत्रुओं के हमलों से सेना राष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षित रखती है।

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वैसे तो शंकराचार्य पीठों पर आचार्य पद को लेकर यदा-कदा विवाद उठता रहता है लेकिन कुंभ पर्व जैसे विराट उत्सव के समय यह विवाद नए-नए रूपों में उठता रहा है। कभी एक पीठ पर दो से अधिक आचार्यों को लेकर अथवा एक आचार्य का दो-दो पीठों पर अधिकार जमाए बैठे रहने के औचित्य को लेकर या उपपीठों के आचार्यों की मान्यता को लेकर अथवा स्वयं के साथ शंकराचार्य नाम लगाए संतों को फर्जी शंकराचार्यों के विरुद्ध बयानों को लेकर ऐसी स्थिति में कुंभ क्षेत्र में प्रायः अशांति का माहौल उत्पन्न हो जाता है। यहाँ तक कि कभी-कभार इस प्रकार के विवादों का हश्र एक- दूसरों पर हमले के रूप में भी सामने आ चुका है।

हरिद्वार में इससे पहले पूर्ण कुंभ में भी ज्योतिपीठ के शंकराचार्य स्वामी माधवाश्रम पर उनके तत्कालीन शिविर केशव आश्रम में हमला हो चुका है स्वामी स्वरूपानंद द्वारिका के शंकराचार्य बनने के बाद भी अपने को ज्योतिष्पीठ का शंकराचार्य कह कर दो पीठों पर अधिकार जमाए बैठे हैं।

इस वर्ष का विवाद नए रूप में सामने आया है स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने काशी सुमेरू पीठ के शंकराचार्य कह रहे स्वामी नरेन्द्रानन्द को फर्जी शंकराचार्य बताते हुए गौरी शंकर द्वीप में बने शंकराचार्य नगर में छावनी के लिए जमीन प्राप्त कर चुके उन सभी आचार्यों को निशाना बनाया जो अपने को अनेक उपपीठों का शंकराचार्य कह रहे हैं।

पूर्वाम्नाय गोवर्धन पीठ (जगन्नाथ पुरी) पर जहाँ स्वामी निश्चलानंद सरस्वती को शंकराचार्य के रूप में समाज की मान्यता मिली हुई है वहीं अधोक्षजानंद तीर्थ अपनी टाँग अड़ाए समय-समय पर पीठ का असली शंकराचार्य होने की ललकार भरते दिखाई देते हैं। अब शारदा पीठ द्वारका को देखिए स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपने को यहाँ का शंकराचार्य कहने के साथ जहाँ ज्योतिपीठ का भी शंकराचार्य कहते हुए फर्जी शंकराचार्यों के लिए हुंकार भरते हैं तो स्वयं उनको द्वारिकापीठ पर राजेश्वराश्रम चुनौती दिए हुए हैं।

चौथा दक्षिणाम्नाय श्रृंगेरी मठ में श्री श्री भारती तीर्थ जी शंकराचार्य हैं तपस्वाध्याय रत हैं लेकिन काँचीकाम कोटि पीठ को संघ परिवार का विशेष समर्थन दक्षिण का प्रमुख शंकराचार्य का भ्रम पैदा हुआ है जबकि श्रृंगेरी पीठ के मुताबिक काँची काम कोटी कोई शंकराचार्य पीठ नहीं है। इस प्रकार अपने-अपने तर्कों के आधार पर शंकराचार्य पीठों का विवाद देश और समाज के हित में नहीं है।

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