महाप्रज्ञ : अनुपम व्यक्तित्व के धनी

अध्यात्म-विज्ञान के समन्वय पुरुष

Webdunia
- अशोक संचेती

जन्म-14-06-1920
जन्म स्थान-टमकोर ( झु ँझुनू)
दीक्षा -19 जनवरी 1931
आचार्य-5 फरवरी 1995
युग प्रधान-19-09-1999
महाप्रयाण - 9 मई 2010

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समय-समय पर ऐसे कई मनीषी एवं दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने अपने विचारों से संपूर्ण मानवता को आलौकित किया है। उन्हीं मनीषियों एवं दार्शनिकों की पंक्ति में आचार्य महाप्रज्ञ वर्तमान शताब्दि के ऐसे महान प्रज्ञापुरुष रहे हैं, जिनसे न केवल बौद्धिक जगत उपकृत हुआ है, बल्कि जनसाधारण के हृदय में भी वे एक दार्शनिक संत के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने अद्भुत मौलिक विचारधारा के माध्यम से आध्यात्मिक क्षेत्र को नए आयाम प्रदान किए।

प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रकुमार ने कहा था 'महाप्रज्ञ अनुपम व्यक्तित्व के धनी हैं। ये स्वभाव से विनम्र, चरित्र से निर्मल, पारदर्शी, जैन तत्वविद्या के गहन अभ्यासी और मौलिक चिंतक हैं। जैन आगमों के शोध और व्याख्या का इनका कार्य विलक्षण है और वह उनकी अध्यवसावशीलता तथा सूक्ष्मग्राहिता का परिचायक है।'

आचार्य महाप्रज्ञ ने अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय को व्यावहारिक स्तर पर भी प्रस्तुत किया। उनका अवदान 'प्रेक्षाध्यान' अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का कीर्तिस्तंभ है। अनेक वैज्ञानिक परीक्षणों से यह निष्कर्ष सामने आया कि प्रेक्षाध्यान से न केवल व्यक्ति की शारीरिक स्थिति में अंतर आता है, बल्कि उसके मानसिक और भावात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक परिवर्तन घटित होता है।

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व्यक्ति इस ध्यान प्रक्रिया के द्वारा अपनी आदतों में परिवर्तन लाकर संपूर्ण व्यक्तित्व को रूपांतरित कर सकता है। प्रेक्षाध्यान पद्धति को जनता के समक्ष प्रस्तुत करने और उसे सुव्यवस्थित आकार देने से पूर्व उन्होंने वर्षों तक अपने शरीर पर ध्यान-साधना के अनेक प्रयोग किए। महीनों एकांत में रहकर जंगलों में जाकर ध्यान योग की प्रबल साधना उन्होंने की। जिससे उनकी आंतरिक शक्तियाँ जागृत होने लगीं।

प्रचलित शिक्षा प्रणाली की त्रुटियों पर चिंतन करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने इसके समाधान के तरीकों पर विचार किया। इसी समाधान की भावभूमि पर उन्होंने 'जीवन विज्ञान' के रूप में एक नया अवदान दिया जो शिक्षा को सर्वांगीण और समाधानकारक बनाता है। उन्होंने विज्ञान के मुख्य उद्देश्य बताएँ-
1. स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण, जिसमें शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं सामाजिक विकास का संतुलन हो।
2. नए समाज का निर्माण-हिंसा, शोषण एवं अनैतिकता से मुक्त समाज का निर्माण।
3. नई पीढ़ी का निर्माण- ऐसी पीढ़ी का निर्माण जो आध्यात्मिक भी हो एवं वैज्ञानिक भी। ऐसे आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण।

निरंतर नूतन स्वप्न देखना एवं उन्हें क्रियान्वित करना आचार्य महाप्रज्ञ की विशेषता रही। इसी क्रम में अणुव्रत-अमृत महोत्सव के अवसर पर आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा, विश्वशांति एवं नैतिकता के क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं के लिए समवाय की संकल्पना का उपक्रम प्रारंभ किया था। समवाय की संकल्पना के संबंध में उनके विचार हैं 'प्रकाश, सत्‌ और विद्या की व्यक्त अवस्था में अहिंसा का विकास होता है। अंधकार, असत्‌ और अविद्या की अवस्था में हिंसा बढ़ती है।

हर समझदार और चिंतनशील व्यक्ति चाहता है समाज में हिंसा न बढ़े, हिंसा बढ़ रही है, उससे चिंतित भी हैं। केवल चिंतित होना ही पर्याप्त नहीं है। आवश्यक है उपाय की खोज। उपाय की खोज के लिए उपायज्ञ संस्थाओं और व्यक्तियों का एक साथ बैठना तथा अहिंसा के विकास के उपाय की खोज करना आवश्यक है। सहचिंतन की स्थिति का निर्माण करने के लिए एक समवाय की अपेक्षा है। उसके मंच पर वे सब लोग एक साथ बैठकर सहचिंतन करें, जिनकी अहिंसा, शांति और नैतिकता में आस्था है।'

आचार्य महाप्रज्ञ उच्चकोटि के चिंतक और मनीषी हैं। उनके चिंतन का दायरा बहुत व्यापक है। वे सामाजिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक समस्याओं से गहरा सरोकार रखते हैं। उन पर गहराई से सोचते और विचार व्यक्त करते हैं। वे मात्र समस्याओं की बात नहीं करते, बल्कि उसके समाधान का मार्ग भी बताते हैं। चिंतन सदैव सकारात्मक होता है। उन्होंने साहित्य की एक नई धारा प्रवाहित कर देश के प्रबुद्ध वर्ग में एक हलचल पैदा कर दी। उनके साहित्य का विशाल पाठकवर्ग है, जो देश के हरेक क्षेत्र में फैला हुआ है।

( आचार्य महाप्रज्ञ वर्धापना विशेषांक से साभार)

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