संत झूलेलाल

मानव उत्थान के लिए जन्में थे झूलेलाल

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भगवा न झूलेला ल क े अवता र- धार ण क ी भ ी ए क गाथ ा है । इतिहास में दर्ज है कि झूलेलालजी ने किसी भाषा या किसी धर्म की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव समाज के उत्थान के लिए जन्म लिया था।

मिरख बादशाह के जनता पर अत्याचार तो उसी दिन बंद हो गए थे, जिस दिन बादशाह ने स्वयं लालसाँईं की वाणी सुनी थी। तत्पश्चात लोगों में जल के प्रति आस्था बढ़ी और सिंधी भाषा में यह कहावत स्थापित हुई- 'जो बहू जल का महत्व नहीं समझे वह घी-मक्खन की कीमत भी नहीं समझेगी।' यही वजह है कि विश्व भर के तमाम दरवेशों, पीरों और मौलाओं में सर्वाधिक पूजे जाते हैं झूलेलालजी।

पाकिस्तान के ठट्टा शहर में जहाँ झूलेलालजी ने जन्म लिया था, विस्थापन के बाद बिहार से गए याकूब भाई ने वहाँ कब्जा जमाया। संभवतः किसी अलौकिक चमत्कार को भाँपकर वे भी झूलेलालजी का मुरीद बन गया। तब से उसने व उसके परिजनों ने झूलेललाजी की अखंड ज्योति को आज भी कायम रखा है। यहाँ के वर्तमान रहवासियों की आस्था भी परवान पर है।

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सिंधु नदी के किनारे जिंदपीर पर जहाँ झूलेलालजी ब्रम्हलीन हुए थे, वहाँ आज भी प्रतिवर्ष चालीस दिनों का मेला लगता है जिसे चालीहा कहा जाता है। इसी चालीहे के दौरान प्रत्येक सिंधी भाषी चाहे वह जहाँ भी हो, यथासंभव अपनी धार्मिक मर्यादाओं का पालन करता है।

दमादम मस्त कलंदर... गीत को लोकप्रियता भले ही बांग्लादेश की गायिका रूना लैला द्वारा गाने के बाद मिली हो लेकिन सदियों से इस गीत के बोल झूलेलालजी की अर्चना में समर्पित किए जाते रहे हैं। संपूर्ण विश्व में संभवतः यह एकमात्र गीत ऐसा है, जिसे पचासों नामचीन गायकों ने अपनी-अपनी शैली में प्रस्तुत किया है। आबदा परवीन, अदनान सामी, साबरी ब्रदर्स, भगवंती नावाणी, लतिका सेन, विशाल-शेखर जैसे कई गायक इस कतार में हैं।

चारई चराग तो दर बरन हमेशा, पंजवों माँ बारण आई आं भला झूलेलालण... अर्थात चारों दिशाओं में आपके दीप प्रज्वलित हैं। मैं पाँचवाँ चिराग लेकर आपके समक्ष हाजिर हूँ। माताउन जी जोलियूँ भरींदे न्याणियून जा कंदे भाग भला झूलेलालण... अर्थात हर माँ की आशाओं को पूरा करना और हर एक कन्या के भविष्य को सुनहरा बनाना। लाल मुहिंजी पत रखजंए भला झूलेलालण, सिंधुड़ीजा सेवण जा शखी शाहबाज कलंदर, दमादम मस्त कलंदर... अर्थात हे ईश्वर, मेरी लाज बचाए रखना, पीरों के पीर मैं सिर्फ आपके भरोसे हूँ। पूरे गीत का आशय यह है कि अपने पैदा किए हुए हर जीव को सुखी, संपन्न और शांति का जीवन देना ईश्वर।

इस गीत में सिंधी सभ्यता समाहित है। अपने जीवन के सरल बहाव के साथ-साथ परोपकार की भावना भी हर सिंधी भाषी में मिलती है। विस्थापन के बाद सिंधियों की पहली जरूरत थी अपना पैर जमाना। इस प्रारंभिक समस्या से काफी कुछ मुक्ति पाने के बाद सिंधी युवा परोपकार के कामों में लगातार आ रहे हैं। अब संस्थाओं का गठन केवल स्वभाषियों के विकास ही नहीं, बल्कि समस्त मानव समाजसेवा के लिए होने लगा है।

विश्व इतिहास में यह एकमात्र सभ्यता ऐसी है, जो विस्थापन पश्चात अल्प समय में ही अपनी भाषा, भूषा, भोजन और भजन को कायम रख सकी है। विस्थापित से स्थापित हुआ यह समाज अब दूसरों की स्थापना का भी सहयोगी है।

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