सयाजी ऊ बा खिन : ‍विपश्यना साधना के जनक

पुण्य स्मरण : 22 जनवरी

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- महेंद्र मोहन भट्‍ ट

अपनी शरीर या‍त्रा छोड़ने की तारीख को अपने गुरुभ्राता को पत्र लिखकर पहले से ही अवग‍त करा दिया था। सयाजी ऊ बा खिन का जन्म 6 मार्च, 1899 को बर्मा की राजधानी रंगून में हुआ था। सयाजी ने कहा था कि धर्म से शांति मिलती है, जो कि अनित्य हैं। उन्होंने मिडिल स्कूल में हमेशा प्रथम श्रेणी प्राप्त की तथा हर कक्षा में उन्हें स्कॉलरशिप मिलती थी। 1917 में हाईस्कूल की परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। सर्वप्रथम 'सन' समाचार पत्र में काम किया तथा बाद में एकाउंटेंट जनरल के कार्यालय में क्लर्क के पद पर कार्य प्रारंभ किया।

1 जनवरी 1937 को जब बर्मा भारत से अलग हुआ तो स्पेशल ऑफिस सुपरिन्टेंडेंट का पद मिला। सयाजी ऊ बा खिन ने रंगून नदी के किनारे ग्राम में किसान सयातैंजी से 'आनापान' का विधिवत कोर्स किया। 1950 में एकाउंटेंट जनरल के ऑफिस में विपश्यना एसोसिएशन का गठन किया। जहां कर्मचारियों को कार्यालय में विपश्यना सिखाते थे। 1952 में रंगून में अंतरराष्ट्रीय विपश्यना ध्यान केंद्र की स्थापना की। वेस्टर्न चर्च में बुद्ध क्या है? पर प्रवचन दिए तथा इसराइल में प्रेस को संबोधित किया।

सयाजी ऊ बा खिन 2500 वर्ष पुरानी बुद्धवाणी विपश्यना ध्यान विद्या को लिखकर ज‍ीवनपर्यंत बांटते रहे। भगवान बुद्ध के समय भिक्षु और भिक्षुणी और इसी प्रकार गृहस्थ उपासक और उपासिकाएं चारों लोग धर्म के प्रबुद्ध आचार्य हुआ करते थे, परंतु समय बीतते-बीतते यह विद्या केवल भिक्षुओं तक ही सीमित रह गई। भदंत लैंडी सयाड़ो ने गृहस्थ किसान सयातैंजी को, जो प्रथम गृहस्थ थे, यह अलौकिक विद्या सिखाई। सयातैंजी के चरणों में बैठकर सयाजी ऊ बा खिन ने इस कल्याणी विद्या को प्राप्त किया। वात्सल्य भरे प्यार से असीम मैत्री और करुणा से उन्होंने (सयातैंजी) मेरे जैसे सामान्य गृहस्थ को विपश्यना के सांचे में ढालकर इस योग्य बनाया कि मैं अपना कल्याण कर सकूं और औरों के कल्याण में भी सहायक बन सकूं।

साढ़े तीन हाथ की काया में सारा संसार समाया हुआ है। साधना के अभ्यास द्वारा आरंभ हुआ वर्तमान में जीने का कार्य मन को सिखाने लगे कि देख इस सांस को जो आ रह‍ी है या जा रही है। हर क्षण सजग रहना पड़ेगा। मन को सिखाने लगे कि भूतकाल की स्मृतियों और भविष्य की आकांक्षाओं से हटकर वर्तमान में रहना सीख। ज्यों ही वर्तमान में रहना आने लगेगा, बहुत से रहस्य सामने आएंगे। जैसे-जैसे स्थूल से सूक्ष्म की और चलेंगे, ज्ञात से अज्ञात को भी जानने लगेंगे। पहले साढ़े तीन दिनों तक अपनी सांस पर ध्यान केंद्रित कर 'अ‍ानापान' क्रिया से अपने अंदर जैसे मन को नियंत्रित करना सहज हो जाता है। मन के अंदर गहराइयों में दबे हुए विकारों को दूर कर मन को निर्मल बना लेना, ही विपश्यना साधना का उद्देश्य है।

साधक के शरीर का ‍निरीक्षण का बड़ा मह‍त्व है। काया पर होने वाली संवेदना, चाहे सुखद हो या दुखद, जब हम उसके सुख-दुख को भोगना छोड़कर तटस्थ भाव से देखने का उपक्रम शुरू करते है, तो अनेक सच्चाइयां अपने आप प्रकट होने लगती हैं। विपश्यना साधना के प्रमुख गृहस्थ संत को उनकी पुण्यतिथि पर शत्-शत् नमन।

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