विविध कर्मकांडों में लाखों की बलि!

- डॉ. दिनेश मिश्र

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पिछले दिनों मुझे देश के अलग-अलग हिस्सों से जानकारियाँ मिलीं, जिसमें बताया गया था धार्मिक आस्था, विविध कर्मकांडों व निजी स्वार्थों के कारण प्रतिवर्ष लाखों मासूम पशु-पक्षियों की बलि ले ली जाती है। जबकि, हम 'अहिंसा परमो धर्म' की रट लगाए नहीं थकते।

संसार के सभी धर्म करूणा, शांति व प्रेम के ही विचार संचारित करते हैं, पश्चिम बंगाल में काम कर रहे कोलकाता के एक स्वयंसेवी संगठन ने अपने सर्वेक्षण में बताया कि प्रतिवर्ष बीस हजार से अधिक पक्षियों की हत्या सिर्फ कोलकाता व उसके आसपास के क्षेत्रों में ही होती है जो पूजा में सजावट के लिए पंख एकत्रित करने के लिए की जाती है। वहीं, दूसरी ओर मुंबई के वन्यजीव विशेषज्ञों ने बताया कि नागपंचमी के आसपास बरसात में साँप को पकड़ने के लिए व उनके दाँत उखाड़ने के लिए अपनाए जाने वाले क्रूर तरीकों से प्रतिवर्ष साठ हजार सर्पों की मौत हो जाती है।

विभिन्न धार्मिक अवसरों, अनुष्ठानों पर बलि होने वाले मुर्गों, बकरों की संख्या लाखों में है। विश्व शांति, जगत के कल्याण व मानव हित के लिए अपने इष्ट को प्रसन्न करने के नाम पर किए जाने वाले आयोजनों में पहला अहित उन मूक पशु-पक्षियों का ही होता है, जिनकी जान की कीमत पर ही ऐसे पाखंड रचे जाते हैं। पश्चिम बंगाल में कार्य कर रहे कोलकाता के एक स्वयंसेवी संगठन 'फ्रेन्डस्‌ एंड वाइल्ड लाइफ' ने एक सर्वेक्षण किया था। जिसमें उन्होंने जानकारी दी थी कि पूजा के समय ढोल को सजाने के लिए पक्षियों के हजारों पंखों की आवश्यकता होती है।

दुर्गा पूजा के समय अकेले कोलकाता व उसके आसपास के क्षेत्रों में हर साल बीस हजार से अधिक पक्षी पंख निकालने के लिए मार दिए जाते हैं। पूजा में काम आने वाले ढोल, नगाड़े बगुले के सफेद पंखों से सजाए जाते हैं। ढोल, नगाड़े बजाने वाले लोगों को पश्चिम बंगाल में ढाकी कहा जाता है। उक्त एनजीओ के सदस्यों ने नदिया व मुर्शिदाबाद से दुर्गा पूजा के लिए कोलकाता जाने वाले तीन सौ ढाकियों से बात की।

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साथ ही कोलकाता के दो हजार पूजा मंडल में भाग लेने वाले 600 अन्य ढाकियों से भी पूछताछ की। उन ढाकियों ने बताया कि उन्होंने अपने ढोल सजाने के लिए सफेद पंख शिकारियों से खरीदे हैं तथा सीजन में ये पंख चौदह सौ रुपए प्रति किलोग्राम तक मिलते हैं।

पता चला कि एक वयस्क पक्षी को मारने से करीब दस अच्छे रंग निकल पाते हैं। एक ढोल पर पंखें की पूँछ बनाने के लिए करीब चालीस पंख की आवश्यकता पड़ती है। यानी, एक ढोल सजाने के लिए चार-पाँच पक्षियों को मारना पड़ता है। मुंबई से प्राप्त एक अन्य जानकारी के अनुसार वहाँ पर कार्यरत वन्य प्राणी विशेषज्ञों का मानना है कि नागपंचमी व उसके आसपास के दिनों में हजारों की संख्या में साँप पकड़े जाते हैं, जिन्हें गाँव व शहरों में सपेरे धूम-घूमकर दिखाते हैं।

इस मौसम में साँप बहुतायत से मिलते हैं, उनकी वंश वृद्घि व प्रजनन का यह मौसम शिकारियों के कारण उनके लिए खतरनाक सिद्घ होता है, अन्य प्राणी विशेषज्ञों व शोधकर्ताओं के अनुसार देश में प्रतिवर्ष इस समय करीब साठ हजार सर्पों की मृत्यु हो जाती है।

इसके अलावा विभिन्न धर्मों में होने वाले अनुष्ठानों धार्मिक त्योहारों में तो मुर्गों, कबूतरों व बकरों की जान पर बन आती है। ग्रामीण अंचल में कथित जादू-टोने से बचाने के लिए बैगा काली मुर्गी की बलि चढ़ाते हैं तो अनेक स्थानों पर निःसंतान दंपत्ति प्राप्ति के लिए पूजा में बकरे की बलि चढ़ाने का रिवाज अब भी है।

सुअर, कबूतर, भैंसे, मोर भी बलि प्रथा के प्रसन्न करने, उनकी कृपा प्राप्त करने के लोभ में होती रही है। किसी भी क्षेत्र में पर्यावरण संतुलन के लिए उस क्षेत्र में उपलब्ध वनस्पति, पशु-पक्षी व मनुष्य आवश्यक घटक हैं। अंधविशवास व रूढ़िवादी परिपाटियों में पड़कर मूक पशु-पक्षियों का सफाया करते जाना, किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है तथा यह सह अस्तित्व की भावना के विपरीत है।
( लेखक अंधश्रद्घा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष हैं।) (नईदुनिया)

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