नानाजी देशमुख : समर्पित भारतीय समाजसेवी

Webdunia
शनिवार, 11 अक्टूबर 2014 (12:27 IST)
जन्म : 11 अक्टूबर 1916 
मृत्यु : 27 फरवरी 2010  
 
नानाजी देशमुख (चंडिकादास अमृतराव देशमुख) एक भारतीय समाजसेवी थे। वे एक समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता, संघ के आजीवन प्रचारक, वरिष्ठ नेता और दृष्टा थे। वे चुनौतियों से निपटने में विशेषज्ञ थे। उनके व्यक्तित्व में चुंबक सरीखा आकर्षण था और जो भी उनके संपर्क में आया वह उनके संपर्क में बना रहा। राजनीति से स्वेच्छा से अलग होकर वे रोल मॉडल बन गए। 
 
उनका जन्म महाराष्ट्र में हिंगोली जिले के कस्बा कदोली में हुआ था। नानाजी भारत के आधुनिक ऋषियों में से एक थे। वे जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे। नानाजी मूल्य आधारित राजनीति पर टिके रहे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया।
 
अटलजी के कार्यकाल में ही भारत सरकार ने उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य व ग्रामीण स्वावलंबन के क्षेत्र में अनुकरणीय योगदान के लिए पद्मविभूषण भी प्रदान किया। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और उसमें रहकर समाजसेवा की। उन्होंने चित्रकूट में 'चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय' की स्थापना की। यह भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय है जिसके वे पहले कुलाधिपति थे। 
 
कांग्रेस शासन को गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका : नानाजी देशमुख की केंद्र में 1977 में जनता पार्टी की सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे संगठन के आदमी थे तथा दोस्तों और चाहने वालों के बीच 'नानाजी' के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्होंने 1974 में जयप्रकाश नारायण के 'संपूर्ण क्रांति' का समर्थन कर भारतीय जनसंघ की राजनीतिक अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया था।
 
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू करने तथा अन्य घटनाओं के बाद जनता पार्टी का गठन किया गया जिसने कांग्रेस से सत्ता छीन ली। इन क्षणों में नानाजी देशमुख की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
 
जेपी आंदोलन के दौरान नानाजी की सांगठनिक क्षमता और आपातकाल के बाद केंद्र की तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार में उन्हें मंत्री का पद दिया गया लेकिन उन्होंने इससे इंकार कर दिया। उत्तरप्रदेश के बलरामपुर से नानाजी ने लोकसभा का चुनाव जीता। इस दौरान कांग्रेस का राज्य में सफाया हो गया।
 
इससे पहले 1974 में बिहार संघर्ष आंदोलन के दौरान इस त्यागी व्यक्ति ने पटना में जेपी को पुलिस की लाठी से बचाया। वे जनता पार्टी के महासचिव बनाए गए। उनके साथ समाजवादी नेता मधु लिमये को भी यह पद दिया गया। यह नया प्रयोग आंतरिक झगड़े के कारण बहुत कम समय तक रह सका।
 
60 साल के होने के बाद नानाजी ने उस समय राजनीति छोड़ दी, जब उनका राजनीतिक करियर शिखर पर था। उन्होंने खुद को सामाजिक कार्यों की ओर मोड़ लिया था जिसके प्रति वे जीवन के अंत काल तक समर्पित रहे।
 
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