भारत को प्राचीनकाल में यूंही नहीं सोने की चिड़िया कहा जाता था। कहा जाता है कि मध्यकाल में जब भारत पर कई आक्रमण हुए तो यहां के राजा-महाराजाओं ने अपनी धन-संपदा को बचाने के लिए छुपा दिया। इनमें से कई खजाने इतने विशाल हैं कि आज की तारीख में भारत की आर्थिक स्थिति बदल सकते हैं।
ऐसे ही एक खजाने के बारे में कहा जाता है कि वो राजस्थान के जयगढ़ किले में छुपा है। जयगढ़ के किले का निर्माण जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह ने करवाया था। कहा जाता है कि इस किले में आज भी अरबों-खरबों का खज़ाना सोना चांदी और रत्नों के रूप में छिपा हुआ है।
सवाई जयसिंह मुगल बादशाह अकबर के सिपहसालार थे और कहा जाता है कि उनकी वीरता के प्रभावित होकर राजा मान सिंह और अकबर के बीच एक संधि हुई थी जिसमें यह तय किया गया था कि राजा मान सिंह जिस किसी भी क्षेत्र पर विजय प्राप्त करेंगे वहां बादशाह अकबर का राज होगा, लेकिन वहां से मिले धन संपदा पर राजा मान सिंह का हक़ होगा।
पुराने दस्तावेज इशारा करते हैं कि अनेक युद्धों की जीत से मिले बेहिसाब धन-दौलत को राजा मान सिंह ने कई किलों में छुपा कर रखा था। उनके पश्चात जयसिंह द्वितीय ने 1726 में जयगढ़ दुर्ग बनवाया था।
कैसे पता चला इस खजाने का : दरअसल जयगढ़ के पुराने किलेदार के एक वंशज बालाबख्श के पास चमड़े के कुछ दस्तावेज थे और जयसिंह खवास के पास जयसिंह का लिखा बीजक था। उसकी मृत्यु के बाद उसके परिजनों ने सरकार द्वारा घोषित इण्डियन ट्रेजर ट्रोव एक्ट में खजाना बताने वाले को कुल संपत्ति के 2 प्रतिशत भाग देने के लालच में सरकारी अफसरों को इस खजाने की सूचना दे दी।
उल्लेखनीय है कि जयपुर रियासत में बड़े ओहदे पर रहे राव कृपाराम के पुत्र राव किस्तूरचन्द के परिवार ने इसी तरह के दस्तावेज जयपुर के आखिरी महाराजा सवाई भवानीसिंह को सौंप दिए थे जिसमें लगभग वही सभी विवरण थे जो बालाबख्श के परिवार के पास पाए गए बीजकों में थे।
इसके अलावा अरबी पुस्तक ‘तिलिस्मात-ए-अम्बेरी’ में भी उल्लेख है कि जयगढ़ किले में सात टांकों के बीच हिफाजत से दौलत छुपाई गई थी। इन सारी बातों से सरकार के कान खड़े हो गए और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान जयगढ़ किले में पांच महीने तक मिले बीजक के अनुसार इस खजाने के लिए खुदाई करवाई।
भारत सरकार ने खजाना खोजने के लिए सेना की 37वीं इंजीनियर्स कोर को बुलाया और 5 महीने में खुदाई पूरी होने के बाद ये बताया गया कि महज 230 किलो चांदी और चांदी का सामान ही मिला है। सेना ने इन सामानों की सूची बनाकर और राजपरिवार के प्रतिनिधि को दिखाई और उसके हस्ताक्षर लेकर सारा सामान सील कर दिल्ली ले गई।
इस खुदाई में मिले सामान पर हमेशा ही विवाद रहा है क्योंकि खुदाई के दौरान सेना के ट्रकों का काफिला जब दिल्ली लौटने लगा तो जयपुर-दिल्ली का राजमार्ग पूरे दिन बंद कर दिया गया और उसकी सुरक्षा में हथियारबंद सैनिक तैनात थे।
अफवाह है कि यह सारा ऑपरेशन इंदिरा गांधी के आदेश और संजय गांधी के निरीक्षण में हुआ और ट्रकों का सारा सामान दिल्ली छावनी में रख दिया गया। हालांकि इंदिरा गांधी कहा कि यहं कोई खजाना नहीं मिला, मगर इसी दौरान पाकिस्तान के सदर जुल्फिकार अली भुट्टो ने इस खजाने से पाकिस्तान का हिस्सा मांग लिया।
अगस्त 11, 1976 को भुट्टो ने इंदिरा गाँधी को एक पत्र लिखा कि विभाजन के समय ऐसी किसी दौलत की अविभाजित भारत को जानकारी नहीं थी। विभाजन के पूर्व के समझौते के अनुसार जयगढ़ की दौलत पर पाकिस्तान का हिस्सा बनता है। भुट्टो ने लिखा था कि ‘पाकिस्तान को यह पूरी आशा है कि खोज और खुदाई के बाद मिली दौलत पर पाकिस्तान का जो हिस्सा बनता है वह उसे बगैर किसी शर्तों के दिया जाएगा।
इंदिरा गांधी ने 31 दिसम्बर 1976 को भुट्टो को लिखे अपने जवाब में कहा कि उन्होंने विधि-विशेषज्ञों को पाकिस्तान के दावे के औचित्य की जांच के लिए कहा था। विशेषज्ञों की राय है कि पाकिस्तान का कोई दावा ही नहीं बनता। इंदिरा गांधी ने यह भी लिखा कि जयगढ़ में किसी तरह का खजाना नहीं मिला।
अब सवाल है कि आखिर खजाना गया कहां? इसके जवाब में जयपुर राजपरिवार का कहना था कि खजाने का एक बड़ा हिस्सा जयपुर को बसाने में खर्च हो गया था, पर दस्तावेज इशारे करते हैं कि मानसिंह द्वितीय ने अपने काल में जयगढ़ के खजाने के एक बड़े हिस्से को मोतीडूंगरी में रख दिया था। इसकी पुष्टि कानौता के जनरल अमरसिंह की डायरी से भी होती है जिसमें लिखा है कि मानसिंह ने जयगढ़ के किलेदारों को बदल दिया और भारी मात्रा में सामान यहां से लेकर कहीं और ले गए।
कुछ पुराने लोग कहते हैं कि खजाने का पता चल गया था लेकिन श्राप के डर से उसे निकालने की हिम्मत कोई न कर सका। तो कुछ लोग संजय गांधी की असमय मौत से भी इस खजाने को जोड़ते हैं।
ऐसा भी कहा जाता है कि एक बार जयगढ़ के अंदर जब अफसरों ने जयसिंह खवास को डपट कर वास्तविक खजाने की जानकारी देने को कहा तो जयसिंह खवास ने काल भैरव के प्राचीन मन्दिर के तल को खोदने के लिए कहा था लेकिन श्राप के बारे में भी चेताया था। इसके बाद ही सेना को खुदाई का काम दिया गया।
हालांकि, आपातकाल में खजाने की खोज के लिए केंद्र ने 25 फरवरी 1976 को इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया था। बाद में ब्रिगेडियर भवानी सिंह के प्रयासों से मई, 1982 से ये किला दोबारा राजपरिवार की संपत्ति बन गया।
भवानी सिंह ने 11 दिसम्बर 1982 को जयगढ़ का कब्जा लेने के तीन दिन बाद ही इस किले को जयगढ़ पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम से पंजिकृत करा लिया। 27 जुलाई 1983 को किला सार्वजनिक हो गया। लेकिन आज भी इस खजाने को लेकर चर्चा और कहानियां चलती रहती है।