रमजान की हिंसा के बाद दुखभरी ईद

अनवर जमाल अशरफ
रमजान के महीने को इस्लाम में व्रत और त्याग का महीना माना जाता है। 30 दिनों के रोजे के बाद ईद मनाई जाती है। ये मुसलमानों के लिए सबसे खुशी का दिन होता है। 
 
लेकिन इस बार की ईद अथाह दुख लेकर आई है। रमजान के आखिरी दिनों में इस्तांबुल से लेकर ढाका और बगदाद से लेकर मदीना तक में आतंकवादी हमले हुए। समझा जा रहा है कि कमोबेश हर हमले के पीछे आइसिस का हाथ है यानी इराक के कुछ इलाकों तक सीमित आइसिस अब अपनी सीमा से आगे निकल चुका है।
 
ये चारों ही हमले मुस्लिम राष्ट्रों में हुए जिनमें इस्लाम की सबसे पवित्र समझी जाने वाली जगह मदीना भी शामिल है। यहां जिस मस्जिद पर आतंकवादी हमला हुआ, उसके पास ही मुस्लिम धर्म के संस्थापक पैगंबर मुहम्मद का मजार है। आइसिस जिस कट्टरवादी वहाबी धड़े को मानता है, उसमें मजारों की जगह नहीं है- चाहे वह पैगंबर मुहम्मद की मजार ही क्यों न हो। उसने 2 साल पहले भी चेतावनी दी थी कि वह ऐसे प्रतीकों को उखाड़ फेंकेगा। उसे शिया समुदाय से भी परेशानी है। इराक में उसने शियाओं को उस वक्त निशाना बनाया, जब वे ईद की खरीदारी कर रहे थे।
 
आतंक का सबसे क्रूर चेहरा बांग्लादेश की राजधानी ढाका में सामने आया, जब बंधकों को यातना देकर मारा गया। इस बात की आलोचना हो सकती है कि बांग्लादेश सरकार ने कट्टरवादी ताकतों से निपटने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए। लेकिन यह भी गौर करने की बात है कि आइसिस ने इराक में अपने गढ़ से हजारों मील दूर भारतीय उपमहाद्वीप में पकड़ बना ली है।
 
रमजान में हमले : रमजान इस्लाम का सबसे पवित्र महीना माना जाता है जिसमें आमतौर पर युद्धविराम हो जाते हैं। मस्जिद में इबादत करने वालों की संख्या बढ़ जाती है और लोग आत्मसंयम पर ध्यान देते हैं। लेकिन इस पवित्र महीने को आतंकवादी संगठन ज्यादा हमलों के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। आइसिस ने रमजान शुरू होने से पहले ज्यादा हमलों की चेतावनी भी दी थी।
 
आइसिस बेहद खतरनाक संगठन है, जो सिर्फ आतंकवादी हमलों में ही विश्वास नहीं करता, बल्कि दुस्साहसी अभियानों से भय भी फैलाना चाहता है। कुछ दिनों पहले इसने पश्चिमी लोगों की हत्या का वीडियो जिस तरह तैयार किया था कि उससे दुनिया सिहर गई थी। बांग्लादेश में हुआ हमला भी कुछ वैसे ही भय को दोहराता है। 
 
लेकिन सवाल उठता है कि आइसिस मुस्लिम राष्ट्रों में ही हमला क्यों कर रहा है। इसकी एक वजह उसकी कट्टरवादी विचारधारा है। दूसरे धर्म तो छोड़िए, इस्लाम के अंदर के कई धड़ों को भी वह 'काफिर' मानता है। इनमें इराक में मारे गए शिया समुदाय के लोग भी शामिल हैं।
 
अंतरराष्ट्रीय होता संगठन : लेकिन चिंता की बात यह है कि 2 साल में इसने अपने 'खिलाफत' के गढ़ से निकलकर अंतरराष्ट्रीय पहचान बना ली है। हाल के दिनों में इसे इराक और सीरिया में भले ही नाकामी मिली हो, यह यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में हमले करने में समर्थ हो गया है। 
 
पश्चिमी देशों से युवा इसमें शामिल होने आ रहे हैं और स्थानीय स्तर पर भी उनकी मौजूदगी बढ़ रही है। पेरिस और ब्रसेल्स के बाद इस्तांबुल और ढाका के हमले इसकी अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति साबित करती है। कुछ ऐसा ही तरीका अल कायदा ने पिछले दशक में अपनाया था, जब वह अफगानिस्तान से निकलकर अफ्रीकी देशों में फैल गया और फिर अमेरिका और यूरोप में आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया।
 
आइसिस के उद्भव में इराक की बंटी हुई राजनीति का भी बड़ा योगदान है, जहां 2003 के बाद से शिया और सुन्नी समुदायों के बीच खाई बढ़ी है। जनता इस बात को समझती है कि भ्रष्टाचार और जातिगत भंवर में फंसी वहीं की सरकार ने आतंकवाद के इस खतरे से जूझने के लिए कभी ठोस कदम नहीं उठाए। इराक से बाहर भी मुस्लिम राष्ट्र आमतौर पर शिया और सुन्नी के नाम पर बंटे हैं और उनके बीच किसी तरह का तालमेल नहीं है।
 
आइसिस के खिलाफ तालमेल : ये आतंकवादी हमले इस तालमेल का मौका देते हैं। मुस्लिम राष्ट्र कभी इस मुद्दे पर एकजुट नहीं हुए हैं। लेकिन आतंकवाद के इस क्रूर चेहरे से निपटने के लिए अगर ईरान, इराक, तुर्की और सऊदी अरब साथ आते हैं तो उन्हें पश्चिमी देशों का भी सहयोग मिल सकता है। 
 
पश्चिमी देश, जो तथाकथित 'इस्लामोफोबिया' के शिकार हैं, वे देख सकते हैं कि मुस्लिम राष्ट्र भी आतंकवादी हमलों से पीड़ित हैं। ईरान ने सहयोग की पेशकश की है। उसके विदेश मंत्री कह चुके हैं कि 'आइसिस ने हर सीमा लांघ दी है, शिया और सुन्नी तब तक इसके शिकार होंगे, जब तक वे साथ नहीं आएंगे।' इस दिशा में जितना कम वक्त खराब किया जाए, उतना बेहतर है। 
 
सऊदी अरब पर हमले के साथ आइसिस ने अपने इरादे जता दिए हैं। ईद के 2 महीने बाद हज का वक्त होगा। दुनियाभर के 20 लाख से ज्यादा हाजी मक्का और मदीना की यात्रा करेंगे तथाये दोनों ही शहर आइसिस के निशाने पर हैं।
 
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