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सिर्फ 5 सेकंड में 80 हजार लोगों की मौत, अमेरिकी बर्बरता की दिल दहलाने वाली कहानी

राम यादव
बुधवार, 6 अगस्त 2025 (08:30 IST)
Hiroshima Death of Humanity: अमेरिका ने 6 और 9 अगस्त 1945 को जापान पर जो दो परमाणु बम गिराए, उनकी अपूर्व विभीषिका ने अमेरिकी शासनतंत्र के सबसे अमानवीय रूप को उजागर कर दिया। दिखा दिया कि अमेरिकी लोकतंत्र की ढोल में कितना पोल है।
 
6 अगस्त 1945 का वह दिन, जब जापान के हिरोशिमा शहर पर मानव इतिहास का पहला परमाणु बम गिरा था, सोमवार का दिन था। सुबह का समय था। सवा आठ बजे थे। धूप खिली थी। लोग अपने काम-धंधे के रास्ते पर थे। अधिकतर बच्चे भी अपने स्कूलों या आंगनबाड़ियों में पहुंच चुके थे। तभी, उस समय साढ़े तीन लाख की जनसंख्या वाले हिरोशिमा शहर के ऊपर आकाश में एक अमेरिकी बी-29 बमवर्षक दिखाई पड़ा।
 
दो अन्य विमानों के साथ यह विमान फ़िलिप्पीन सागर के तिनियान द्वीप से चला था। छह घंटे बाद हिरोशिमा पहुंचा था। उसके चालक पॉल डब्ल्यू टिबेट्स ने अपनी मां के सम्मान में विमान को 'एनोला गे' नाम दे रखा था। उसकी मां का यही नाम था। 'एनोला गे' जब जापान के मुख्य द्वीप से करीब पांच घंटे की उड़ान की दूरी पर था, राडार के पर्दे पर उसका पता चल गया था। लेकिन, उसका रास्ता रोकने या उसे मार गिराने का कोई प्रयास क्यों नहीं नहीं हुआ, यह आज तक कोई नहीं जानता।

विमान हिरोशिमा के ऊपर जब करीब 10 किलोमीटर की ऊंचाई पर था, पॉल टिबेट्स ने बम गिराने की अंतिम तैयारियां पूरी कीं। उसके सहयोगी मेजर टॉमस फ़ेरेबी ने एक स्विच दबाया और बम तेज़ी से ज़मीन की ओर चल पड़ा। 43 सेकंड बाद बम जब लगभग 580 मीटर की ऊंचाई पर था, एक प्रचंड विस्फोट के साथ हवा में ही फट पड़ा।
 
बम को सबसे व्यस्त पुल के ऊपर फटना था : 64 किलो यूरेनियम के बने 'लिटल बॉय' नाम के इस बम की विस्फोटक क्षमता 16 किलोटन 'टीएनटी' के बराबर थी। उसे वास्तव में 'आइओई' नाम के हिराशिमा के एक सबसे व्यस्त पुल के ठीक ऊपर फटना था। पर, तेज़ हवा के झोंकों ने उसे लक्ष्य से क़रीब 240 मीटर परे, 'शीमा' नाम के एक अस्पताल के ऊपर पहुंचा दिया। विस्फोट की प्रघात तरंगों के साथ 10 लाख डिग्री सेल्सियस तापमान के बराबर प्रचंड गर्मी पैदा हुई। 1.6 किलोमीटर व्यास के दायरे में सब कुछ पूरी तरह नष्ट हो गया। 4 किलोमीटर के दायरे में सारे मकान ढह गए। शहर में जापानी सेना का मुख्यालय तक नहीं बचा।
 
विस्फोट से फैली आग से 11 वर्ग किलोमीटर की दायरे में जो कुछ भी जल सकता था, जलने लगा। स्वयं अमेरिकी जानकारों का अनुमान है कि मात्र 5 सेकंड के भीतर 80 हज़ार लोग मर गए! जो अन्य हज़ारों लोग तुंरत नहीं मरे, वे जल जाने, रेडियोधर्मिता या बुरी तरह घायल हो जाने के कारण वर्षों बाद तक तड़प-तड़प कर मरते रहे। विस्फोट से पैदा हुए धुंए, धुंध और रेडियोधर्मी विकिरण वाले ग़ुबार का बादल, किसी कुकुरमुत्ते जैसे आकार में, ज़मीन से लेकर 14 किलोमीटर ऊपर तक छा गया। ज़मीन पर उसका व्यास करीब एक किलोमीटर था। ग़ुबार के इस बादल के कारण कुछ घंटे बाद कालिख-भरी बरसात होने लगी। इससे नदियों, तालाबों और झीलों का पानी लंबे समय के लिए रेडियोधर्मिता (रेडिएशन) से प्रदूषित हो गया।
 
हवाई हमले की चेतावनी का सायरन नहीं बजा : उस दिन के भुक्तभोगी रहे और जीवित बच गए हिरोशिमा-वासियों का कहना है कि आकाश में उन्होंने तीन विमान देखे, किंतु जनता को सजग करने के लिए हवाई हमले का तुरंत कोई सायरन नहीं बजा! सायरन बजना शुरू हुआ साढ़े आठ बजे। बम गिरने के 15 मिनट बाद! 'एनोला गे' के अलावा जो दो दूसरे विमान देखे गए, उनमें से एक में फ़ोटोग्राफ़र बैठे थे और दूसरे में अपने अवलोकन-मापन उपकरणों के साथ कई वैज्ञानिक बैठे थे।
 
भूकंप-प्रधान जापान में उस समय अधिकतर मकान हल्की लकड़ी और कागज़ के बने होते थे। शहर के 76 हज़ार घरों में से 70 हज़ार जल कर नष्ट हो गये या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए। हिरोशिमा की क़रीब एक-तिहाई जनता देखते ही देखते काल के गाल में समा गई। 70 हज़ार लोग झुलस गए या घायल हो गये। 20 हज़ार सैनिक भी मरे। बम के रेडियोधर्मी विकरण से होने वाले दीर्घकालिक दुष्प्रभावों के कारण मरना आज भी पूरी तरह बंद नहीं हुआ है।
 
तीन दिन बाद इसी कहर की पुनरावृत्ति : इसी परमाणविक प्रलय की पुनरावृत्ति, तीन दिन बाद, गुरुवार 9 अगस्त को, दोपहर 11 बजकर दो मिनट पर नागासाकी में भी हुई। वहां 'फ़ैट बॉय' नाम का जो दूसरा बम गिराया गया वह यूरेनियम का नहीं, उससे भी अधिक घातक प्लूटोनियम का बना हुआ था। नागासाकी में ही उसका वैज्ञानिक परीक्षण और जनसंहारक उपयोग, दोनों एक साथ हुआ। एक किलोमीटर के दायरे में 80 प्रतिशत मकान भस्म हो गए। 70 से 80 हज़ार लोग मरे। 
 
जापान पर परमाणु बम गिराने के संभावित लक्ष्यों की पहली सूची में वास्तव में चार शहरों को चुना गया था –  हिरोशिमा, कोकूरा, क्योतो और निईगाती। क्योतो जापान की पुरानी राजधानी रह चुका था। अमेरिका के तत्कालीन युद्धमंत्री हेनरी स्टिम्सन ने अपनी पत्नी के साथ क्योतो में कभी हनीमून मनाया था। वे नहीं चाहते थे कि जिस शहर के साथ उनके मधुचंद्र की मधुर यादें जुड़ी हैं, वह उनके देश के हाथों मिट जाए। क्योतो को बचाने के लिए उन्होंने नागासाकी का नाम सुझाया था।
 
प्रलयंकारी संहारलीला का अनोखा औचित्य : हिरोशिमा व नागासाकी पर गिराए गए दोनों परमाणु बमों की प्रलयंकारी संहारलीला का औचित्य यह बताया गया कि उनके बिना जापान, द्वितीय विश्वयुद्ध में न तो अपनी पराजय मानता और न आत्मसमर्पण करता। यह सच है कि हिटलर के जर्मनी ने तो 8 मई, 1945 को बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया था, जबकि जापान ने दोनों परमाणु बमों की मार खाने के बाद, 15 अगस्त 1945 को अपनी हार मानी। उस दिन जापान के सम्राट हिरोहितो ने रेडियो पर एक अभिभाषण में जनता से कहा– 'समय और भाग्य के आदेश पर हमने शांति का मार्ग प्रशस्त करना तय किया है। उन सब पीढ़ियों के लिए, जिन्हें अब कष्ट सहना पड़ेगा, यह निश्चित रूप से असहनीय है।' दो सप्ताह बाद, 2 सितंबर के दिन, जापानी सेना ने विधिवत आत्मसमर्पण कर दिया। 
 
लेकिन, सच यह भी है कि जापान, 1945 का जुलाई महीना आने तक, अमेरिका और उसके साथ के 'मित्र-राष्ट्रों' के साथ शांतिवार्ता के रास्ते तलाशने लगा था। जर्मनी के पतन के बाद उसकी राजधानी बर्लिन से सटे हुए पोट्सडाम शहर में, 17 जुलाई से 2 अगस्त तक, द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता 'मित्र-राष्ट्रों' का एक शिखर सम्मेलन हुआ था। उसमें तीन मुख्य विजेता देशों के शीर्ष नेताओं––  अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और तत्कालीन कम्युनिस्ट सोवियत संघ (रूस) के तानाशाह योसेफ़ स्टालिन ने भाग लिया था।
 
जापान शांति वार्ताएं चाहता था : इस सम्मेलन से एक सप्ताह पू्र्व, 9 जुलाई 1945 के दिन, मॉस्को में जापानी राजदूत ने सोवियत विदेशमंत्री व्याचेस्लाव मोलोतोव से मिलकर अनुरोध किया था कि पोट्सडाम सम्मेलन के नेताओं से कहा जाए कि जापान उनके साथ शांतिवार्ताएं चाहता है। नई जानकारियों के अनुसार, यह अनुरोध जापानी सम्राट हिरोहितो की पहल पर हुआ था। उस समय तक सोवियत संघ अकेला ऐसा देश था, जापान जिसके विरुद्ध युद्ध की स्थिति में नहीं था। 
 
नई जानकारियां यह भी कहती हैं कि पोट्सडाम सम्मेलन के समय राष्ट्रपति ट्रूमैन और उनके युद्धमंत्री हेनरी स्टिम्सन को यह मालूम रहा होना चाहिए कि जापान का घुटने टेक देना, बस, केवल कुछ दिनों की बात है। अमेरिकी गुप्तचर सेवा 'सीआईए' जापानी सरकार द्वारा उसके कुछ राजदूतों को भेजे गए तारों (टेलीग्रामों) की गुप्तचरी से इसे जान चुकी थी। इस संदर्भ में काफ़ी खोज कर चुके कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सॉन मैलोय के अनुसार, 'जापान ने संभावित सोवियत मध्यस्थों के द्वारा तथा स्विट्ज़रलैंड में अपने दूतावास के माध्यम से बहुत स्पष्ट संकेत दिए थे कि वह अब शांति चाहता है।' जापानी विदेशमंत्री तोगो ने स्विट्ज़रलैंड में अपने राजदूत सातो के नाम 11 जुलाई, 1945 को भेजे गए एक तार में लिखा, 'हम अपनी विकट स्थिति के कारण युद्ध का अंत कर देने पर गोपनीय विचार कर रहे हैं।'
 
अमेरिका बिना शर्त आत्मसमर्पण मांग रहा था : यही नहीं, जापान ने एलन डलेस नाम के एक अमेरिकी अधिकारी से भी संपर्क किया, जो बाद में अमेरिकी गुप्तचर सेवा 'सीआईए' का निदेशक बना। पोट्सडाम के शिखर सम्मेलन में अमेरिका तब भी, किसी शांतिवार्ता के बदले जापान को पूरी तरह नीचा दिखाने वाले बिना शर्त आत्मसमर्पण की मांग पर तुला रहा। उसी के आग्रह पर पोट्सडाम सम्मेलन की संयुक्त विज्ञप्ति में जापान से कहा गया कि वह बिना शर्त अविलंब आत्मसमर्पण करे। 
 
कुछ नए तथ्यों और अब तक अज्ञात रहे नए दस्तावेज़ों से यह भी पता चलता है कि 1940 वाले दशक के प्रथमार्ध में हिटलर शासित जर्मनी, अमेरिका तथा स्टालिन शासित कम्युनिस्ट सोवियत संघ के बीच एक गुप्त होड़ चल रही थी कि कौन सबसे पहले परमाणु बम बना लेगा। अपने गुप्तचरों से अमेरिका को पता चला था कि स्टालिन के वैज्ञानिक 1943 से ही परमाणु बम बनाने में जुटे हुए हैं। जर्मनी ने भी 1944 तक V-2 नाम का एक रॉकेट बना लिया था; डर था कि उसके वैज्ञानिक भी किसी भी समय अपने परमाणु बम का धमाका कर सकते हैं। अतः हर हाल में अमेरिका सबसे पहले अपना बम बना लेने के लिए अधीर था। 
 
अमेरिका ने बाज़ी मार ली : मई, 1945 में जर्मनी के आत्मसमर्पण से जर्मन बम का डर तो नहीं रहा, पर रूसी बम का डर बना रहा। 1945 का जुलाई महीना आने तक अमेरिकी बम बनाने पर दो अरब डॉलर ख़र्च हो चुके थे। पोट्सडाम शिखर सम्मेलन शुरू होने से ठीक एक दिन पहले, 16 जुलाई 1945 के दिन, अमेरिकी वैज्ञानिकों ने 'लोस अलामोस' मरुस्थल में अपने पहले यूरेनियम परमाणु बम का परीक्षण किया। उसे 'ट्रीनिटी टेस्ट' नाम दिया गया था। परीक्षण सफल रहा। अमेरिका ने बाज़ी मार ली।
 
अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने सोवियत तानाशाह स्टालिन को यह बात पोट्सडाम वाले शिखर सम्मेलन के समय स्वयं ही बताई। स्टालिन ने उसी शाम अपनी गुप्तचर सेवा के प्रमुख लावरेंत बेरिया से कहा कि सोवियत परमाणु बम के काम में और तेज़ी लाई जाए। अमेरिका ने पहले ही तय कर लिया था कि वह अपना पहला परमाणु बम जापान पर ही गिराएगा। सोवियत संघ को इससे यह संदेश मिलेगा कि चालू सदी की सबसे अजेय महाशक्ति अमेरिका ही है।  
 
जापान पर परमाणु बम गिराना पहले से तय था : जापान पर दोनों बम गिराए जाने से तीन साल पहले, अमेरिका ने अपने यहां से हज़ारों किलोमीटर दूर, जापान के निकटवर्ती देश फ़िलिप्पीन के पास के तिनियान द्वीप पर एक गोपनीय वायुसैनिक अड्डा बनाया। वहां कुछ ऐसे वैज्ञानिक भी रखे गए थे, जो चुने हुए वायुसैनिकों को भविष्य में किसी दिन जापान पर परमाणु बम गिराने का प्रशिक्षण देने में हाथ बंटा रहे थे। बम बनाने का काम अमेरिका की अपनी भूमि पर युद्धस्तर पर चल रहा था। यानी, अमेरिका ने 1942 में ही तय कर लिया था कि पहला परमाणु बम जब भी बन जाएगा, उसे द्वितीय विश्वयुद्ध छेड़ने वाले हिटलर के जर्मनी पर नहीं, हिटलर का साथ दे रहे जापान पर गिराया जाएगा। 
 
जापान पर ही इसलिए कि जापानी वायुसेना ने, 7 दिसंबर 1941 को, प्रशांत महासागर के हवाई द्वीप पर स्थित अमेरिकी नौसैनिक अड्डे 'पर्ल हार्बर' पर आकस्मिक हमला बोलकर अमेरिका को भारी चोट पहुंचाई थी। अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध में तब तक शामिल नहीं हुआ था। जापान के इस आकस्मिक आक्रमण से बौखला कर दूसरे ही दिन, यानी 8 दिसंबर 1941 को, अमेरिका ने भी विश्वयुद्ध में कूद पड़ने की घोषणा कर दी।
 
भाग 2 में पढ़िए : जापान भी जर्मनी की तरह आत्मसमर्पण के लिए तैयार था, पर अमेरिका ने अपने दोनों बमों की विनाश लीला देखने और दुनिया को दिखाने के लिए जापान को ही क्यों चुना और उसे एक नरक कैसे बना दिया।

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