ईदुज़्ज़ुहा : कुर्बानी की मिसाल

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- जावेद आलम

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इस्लाम के दो बहुत अहम त्योहार हैं। ये दोनों ईद हैं। एक ईदुल्फित्र और दूसरी ईदुज़्ज़ुहा। ईद अरबी शब्द है, जिसका मतलब होता है ख़ुशी। सो इन दोनों त्योहारों से ख़ुशी जुड़ी हुई है। ईदुल्फित्र से रोज़े और फ़ित्रे की ख़ुशी। फ़ित्रा वह रक़म है जो ईदुल्फित्र से पहले अदा की जाती है। यह रक़म ग़रीबों को दी जाती है, जिससे वह भी ईद मना सकें।

इसी तरह ईदुज़्ज़ुहा से क़ुर्बानी जुड़ी हुई है। इस क़ुर्बानी को सुन्नाते-इब्राहीमी कहा गया है। सुन्नाते इब्राहीमी यानी अल्लाह के नबी (संदेशवाहक) हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नात। शब्द सुन्नात दरअसल नबी के तरीक़ों और उनके कथनों को कहा जाता है। तो यह जो क़ुर्बानी की सुन्नात है, वह दरअसल हज़रत इब्राहीम का तरीक़ा है।

हज़रत इब्राहीम बहुत वरिष्ठ नबी माने जाते हैं कि वे कई नबियों से पहले आए तथा उनके बाद कई पीढ़ियों तक इनके ख़ानदान में नबियों के आने का सिलसिला चलता रहा। इन्हीं के ख़ानदान में हज़रत मूसा, हज़रत ईसा और हज़रत मुहम्मद जैसे नबी पैदा हुए। इन नबियों को मानने वालों में क्रमशः यहूदी, ईसाई और मुसलमान हैं। इस तरह ये तीनों क़ौमें हज़रत इब्राहीम को समान रूप से अपना नबी मानती हैं।

  अल्लाह के नबी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को दुनिया की बड़ी आबादी अपना नबी मानती है। क़ुर्बानी का त्योहार ईदुज़्ज़ुहा और हज, दोनों ही चीज़ें हज़रत इब्राहीम की यादगार हैं। ये दोनों मौक़े हमें त्याग, बलिदान और अल्लाह से सच्ची मुहब्बत का सबक़ देते हैं।      
चूँकि इन तीनों धर्म के मानने वालों की तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है, इस तरह हज़रत इब्राहीम ऐसे रहनुमा हुए जिन्हें सारी दुनिया के लोग ईश दूत मानते हैं। क़ुरआन में जगह-जगह हज़रत इब्राहीम का ज़िक्र आया है। इस्लाम में कुछ चीज़ें हज़रत इब्राहीम से भी ली गई हैं। क़ुर्बानी इन्हीं में से एक है। हज़रत मुहम्मद के साथियों ने पूछा कि या रसूलुल्लाह, यह क़ुर्बानी क्या चीज़ है? तो आपने फ़रमाया - तुम्हारे वालिद इब्राहीम की सुन्नात व यादगार है। उन्होंने अर्ज़ किया कि हमारे लिए इसमें क्या सवाब है, तो रसूले-ख़ुदा ने फ़रमाया कि (क़ुर्बान किए जाने वाले) जानवर के हर बाल के बदले एक नेकी। इसी बेहिसाब सवाब को पाने के लिए पूरी आस्था और श्रद्धा के साथ क़ुर्बानी की जाती है।

यह क़ुर्बानी रब को राज़ी करने और उसके एक प्रिय नबी का बलिदान याद करने के लिए की जाती है। इसमें जज़्बा और आस्था अहम है, न कि मांस भक्षण। इस बाबद क़ुरआन मजीद में कहा गया है - "न उनका मांस अल्लाह को पहुँचता है और न उनका रक्त। किंतु उस तक तुम्हारा तक़वा (धर्म परायणता) पहुँचता है।" अर्थात जो जितना निस्वार्थ रहकर सिर्फ ख़ुदा के लिए क़ुर्बानी करेगा, वह रब को उतनी ही प्रिय और स्वीकार्य होगी।

ज़ाहिर है दिखावे के लिए या किसी और सोच के तहत, जैसे दिखावा करने, मांस खाने या ऐसे ही किसी इरादे से की जाने वाली क़ुर्बानी का रब के यहाँ कोई मोल नहीं है। कु़र्बानी का पर्व असल में एक यादगार घटना से जुड़ा हुआ है। यह घटना है रब्बे-कायनात (ईश्वर) के आगे समर्पण, उसकी मुहब्बत में अपना सब कुछ क़ुर्बान कर देने की। इसमें हज़रत इब्राहीम ने अपने प्यारे बेटे को अल्लाह के हुक्म से उसकी राह में क़ुर्बानी हेतु प्रस्तुत कर दिया था।

बेटा भी वह जो बड़ी मिन्नतों-दुआओं के बाद उन्हें बुढ़ापे में प्राप्त हुआ था। दरअसल हज़रत इब्राहीम 85 साल के हो गए, तब तक उनके यहाँ कोई औलाद नहीं थी। इसलिए वे अक्सर अपने रब से दुआ माँगा करते थे कि 'ऐ मेरे रब! मुझे कोई नेक संतान प्रदान कर ।' क़ुरआन में इस बाबद आया है "तो हमने उसे एक सहनशील पुत्र की शुभ सूचना दी। फिर जब वह उसके साथ दौड़-धूप करने की अवस्था को पहुँचा तो उसने कहा- ऐ मेरे प्रिय बेटे! मैं स्वप्न में देखता हूँ कि तुझे क़ुर्बान कर रहा हूँ। तो अब देख तेरा क्या विचार है? उसने कहा- "ऐ मेरे बाप! जो कुछ आपको आदेश दिया जा रहा है, उसे कर डालिए। अल्लाह ने चाहा तो आप मुझे धैर्यवान पाएँगे ।'

अंततः जब दोनों ने अपने आपको (अल्लाह के आगे) झुका दिया और उसने (इब्राहीम ने) उसे कनपटी के बल लिटा दिया (तो उस समय क्या दृश्य रहा होगा, सोचो) और हमने उसे पुकारा- "ऐ इब्राहीम! तूने स्वप्न को सच कर दिखाया। निस्संदेह हम उत्तमकारों को इसी प्रकार बदला देते हैं। निस्संदेह यह तो एक खुली हुई परीक्षा थी।" (क़ुरआन 37 /100-106) हज़रत इब्राहीम इस परीक्षा में सफल रहे।

रब ने उनकी क़ुर्बानी यूँ क़बूल की कि बेटे की जगह एक चौपाया लिटा दिया। इसी बेमिसाल घटना की याद में हर साल इस्लामी माह ज़िलहिज्ज की 10 से 12 तारीख़ की शाम तक चंद मख़्सूस चौपायों की क़ुर्बानी दी जाती है ताकि इब्राहीम का ईश्वर के प्रति समर्पण, उनका त्याग और बलिदान सदा ज़िंदा रहे।

क़ुर्बानी से पहले ईदगाह तथा शहर की बड़ी मस्जिदों में ईद की विशेष नमाज़ अदा की जाती है। इस क़ुर्बानी में यह संदेश भी पोशीदा है कि अल्लाह के हुक्म पूरा करने वालों के लिए बड़ा सवाब, बड़ा प्रतिफल है तथा उसकी मर्ज़ी, उसके आदेशों के सम्मुख अपनी मर्ज़ी, अपनी ख़्वाहिशात की क़ुर्बानी उसे बहुत पसंदीदा है।

असल यह भी है कि मनुष्य जब पूर्ण भक्तिभाव से ईश्वर के सम्मुख प्रस्तुत होता है, सर्वस्व से उसे समर्पित होता है तो उसे जानने, उसकी कृपा पाने, ईश्वर के निकट जाने, उसके सामीप्य का सुख उठाने के लिए सब कुछ दाँव पर लगाने को तैयार हो जाता है। हज़रत इब्राहीम ने यही तो किया। सृजक और सृष्टिकर्ता में यह संबंध जितना पवित्र और निश्छल होगा, मनुष्य की आत्मा उतनी ही शुद्ध होगी।

असल में तो यह आसक्ति का मामला है, जिसमें प्रियतम की हर इच्छा के आगे प्रेमी नतमस्तक रहता है। ईदुज़्ज़ुहा इसी आसक्ति, प्रेमभाव, त्याग और बलिदान की यादगार है। यह यादगार है एक पचासी साला बूढ़े बाप की, एक आस्तिक, आज्ञावान, सच्चरित्र नौजवान पुत्र की, जिन्हें अपनी भक्ति के साथ भक्ति से सर्वोपरि ईश्वर, ख़ुदा की हस्ती पर मुकम्मिल यक़ीन था, भरपूर आस्था थी। इसी आस्था ने उन्हें ऐसी क़ुर्बानी के लिए प्रेरित किया कि हज़ारों साल बाद भी उनकी भक्ति का कण मात्र पाने के लिए करोड़ों लोग अल्लाह के सामने अपनी क़ुर्बानी का नज़राना पेश करते हैं।
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