पुराण में कहा है

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दया का मूल धर्म ह ै

ईष्टो यथात्मनो देहः सर्वेषां प्राणिनां तथा।
एवं ज्ञात्वा सदा कार्या सदा सर्वासु धारिणाम्‌ ॥
मुझे अपना शरीर जैसा प्यारा है, उसी तरह सभी प्राणियों को अपना-अपना शरीर प्यारा है। ऐसा जानकर सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिए।

एषैव हि पराकाष्ठा धर्मस्योक्ता जिनाधिपैः।
दयारहितचित्तानां धर्मः स्वल्पोऽपि नेष्यते ॥
जिनेन्द्र देव ने कहा है कि धर्म की चरम सीमा है दया। जिन आदमियों में दया नहीं है, उनमें रत्तीभर भी धर्म नहीं है।

सोऽर्थो धर्मेण यो युक्तो स धर्मो यो दयान्वितः।
सा दया निर्मला ज्ञेया मांसं यस्यां न भुज्यते ॥
धन वही है, जिसके साथ धर्म है। धर्म वही है जिसके साथ दया है। मांस न खाना ही निर्मल दया है।

हरी घास में भी जीव ह ै
राजा भरत जब दिग्विजय करके लौटे, तो उन्होंने सोचा कि दूसरे के उपकार में मेरी सम्पत्ति का उपयोग कैसे हो? मैं महामह नाम का यज्ञ कर धन वितरण करूँ। मुनि तो हम लोगों से धन लेते नहीं, इसलिए हमें गृहस्थों की पूजा करनी चाहिए, पर योग्य लोगों को चुनकर।

राजा भरत ने उत्सव का प्रबंध किया। नागरिकों को निमंत्रण दिया और सदाचारी लोगों की परीक्षा के लिए घर के आँगन में हरे-हरे अंकुर, फूल और फल खूब भरवा दिए।

जिन लोगों ने कोई व्रत नहीं लिया था, वे बिना सोचे-विचारे राज मंदिर में घुस आए। राजा ने उन्हें एक ओर हटा दिया।

कुछ लोग भीतर आए बिना वापस लौटने लगे। राजा ने उनसे भीतर आने का आग्रह किया तो प्रासुक मार्ग से, बिना जीववाले मार्ग से होकर वे राजा के पास पहुँचे। राजा ने उनसे पूछा कि आप आँगन से होकर क्यों नहीं आए? तो उन्होंने कहा- आज पर्व का दिन है। आज न तो कोपल, न पत्ते और न पुष्प आदि का घात किया जाता है और न उनमें रहने वाले जीवों का।

हे देव, हमने सुना है कि हरे अंकुर आदि में अनन्त 'निगोदिया' जीव, आँखों से भी न दिखने वाले जीव रहते हैं। इसलिए हम आपके आँगन से होकर नहीं आए क्योंकि उसमें शोभा के लिए जो गीले-गीले फल-फूल और अंकुर बिछाए गए हैं, उन्हें हमें रौंदना पड़ता तथा बहुत से जीवों की हत्या होती!

राजा भरत पर इन वचनों का बहुत असर हुआ। उन्होंने इन गृहस्थों को दान, मान आदि सत्कार से सम्मानित किया।

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