क्यों कम हो रही है कश्‍मीर के अखरोट की मांग, क्या है मामले का चीन कनेक्शन?

कश्मीर में कभी फलता-फूलता अखरोट (walnuts) उद्योग गंभीर संकट का सामना कर रहा है, क्योंकि पिछले 4 वर्षों में इसके जैविक अखरोट की मांग 85% से घटकर सिर्फ 30% रह गई है।

सुरेश एस डुग्गर
गुरुवार, 17 अप्रैल 2025 (12:47 IST)
Demand for Kashmir walnuts is low: कश्मीर में कभी फलता-फूलता अखरोट (walnuts) उद्योग गंभीर संकट का सामना कर रहा है, क्योंकि पिछले 4 वर्षों में इसके जैविक अखरोट की मांग 85% से घटकर सिर्फ 30% रह गई है। उत्पादक और व्यापारी इस बात से काफी चिंतित हैं कि 2020 में 1.70 लाख मीट्रिक टन से बिक्री में भारी गिरावट आई है और 2024 में यह सिर्फ 30,000 मीट्रिक टन रह गई है। इस गिरावट के पीछे मुख्य कारणों में सस्ते चीनी अखरोट (Chinese walnuts) की आमद, अपर्याप्त प्रसंस्करण सुविधाएं और कमजोर विपणन रणनीतियां शामिल हैं।ALSO READ: सेहतमंद रहना चाहते हैं तो रोज खाएं सिर्फ दो अखरोट, जानिए फायदे
 
इस व्‍यापार में लिप्‍त लोगों के अनुसार स्थानीय बाजारों में कश्मीरी जैविक अखरोट की कीमत वर्तमान में 700-800 रुपए प्रति किलोग्राम के बीच है जबकि चीनी अखरोट लगभग आधी कीमत 350-400 रुपए प्रति किलोग्राम पर बिकता है। कीमतों में यह भारी अंतर मुख्य रूप से चीन के बड़े पैमाने पर उत्पादन के तरीकों के कारण है, जो रासायनिक उर्वरकों पर बहुत अधिक निर्भर करता है जिससे कम लागत पर बड़े पैमाने पर निर्यात संभव हो पाता है।
 
कश्मीर के अखरोट उद्योग के लिए एक बड़ी चुनौती : कश्मीर के अखरोट उद्योग के लिए एक बड़ी चुनौती फसल की कटाई के बाद उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए प्रसंस्करण इकाइयों की कमी है। विशेषज्ञ बताते हैं कि कश्मीरी अखरोट में तेल की मात्रा अधिक होती है लेकिन अपर्याप्त प्रसंस्करण के कारण उनका प्राकृतिक रंग सफेद नहीं होता है जिससे वे घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों में कम आकर्षक हो जाते हैं।
 
बागवानी विपणन विभाग के आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि वर्तमान में केवल 15% अखरोट औपचारिक चैनलों के माध्यम से बेचे जा रहे हैं। आधिकारिक सूत्रों से पता चलता है कि उचित ग्रेडिंग प्रणाली की अनुपस्थिति और जैविक प्रमाणीकरण को बढ़ावा देने में विफलता ने स्थिति को और खराब कर दिया है। उद्योग को पुनर्जीवित करने के लिए बागवानी विभाग ने 70,000 हैक्टेयर में 2 लाख मीट्रिक टन के वार्षिक उत्पादन का समर्थन करने के उद्देश्य से नई पहल शुरू की है।ALSO READ: अखरोट के साथ ये एक चीज मिलाकर खाने के कई हैं फायदे, जानिए कैसे करना है सेवन
 
प्रमुख उपायों में प्रसंस्करण इकाइयां स्थापित करना, जैविक प्रमाणीकरण और भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग हासिल करना, विपणन प्रयासों में सुधार करना और एक मजबूत ग्रेडिंग प्रणाली को लागू करना शामिल है। जिलेवार उत्पादन के आंकड़े महत्वपूर्ण असमानताओं को उजागर करते हैं जिसमें अनंतनाग 11,915 मीट्रिक टन के साथ सबसे आगे है, इसके बाद कुपवाड़ा 8,824 मीट्रिक टन और गंदेरबल 5,454 मीट्रिक टन के साथ दूसरे स्थान पर है। पुलवामा, बडगाम, कुलगाम, शोपिया और श्रीनगर जैसे अन्य जिले छोटी लेकिन उल्लेखनीय मात्रा में उत्पादन करते हैं।
 
अखरोट के सख्त छिलके ने भी मांग में गिरावट में योगदान दिया : दक्षिण कश्मीर के पुलवामा के अब्दुल रहीम बंदे जैसे थोक व्यापारियों ने अतिरिक्त चुनौतियों की ओर इशारा करते हुए कहते थे कि लगभग 10% कश्मीरी अखरोट टूटने पर खाली निकलते हैं और उनका छोटा आकार उन्हें चीनी अखरोट के बड़े गिरी की तुलना में कम आकर्षक बनाता है। कश्मीरी अखरोट के सख्त छिलके ने भी मांग में गिरावट में योगदान दिया है।
 
अधिकारियों के अनुसार उच्च उपज वाली पहाड़ी किस्मों पर शोध के माध्यम से उत्पादन को बढ़ावा देने के प्रयास चल रहे हैं। कृषि समग्र विकास योजना के तहत सरकार अखरोट की खेती को बढ़ावा दे रही है और किसानों को प्रसंस्करण इकाइयों सहित आवश्यक सुविधाएं प्रदान करने की योजना बना रही है। प्रसंस्करण में सुधार होने के बाद विभाग कश्मीरी अखरोट की विपणन क्षमता बढ़ाने के लिए जीआई टैग प्राप्त करने पर भी काम कर रहा है।
 
Edited by: Ravindra Gupta

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