फनी बाल कविता : संतरे

प्रभुदयाल श्रीवास्तव
गुरुवार, 11 सितम्बर 2014 (11:54 IST)
अब तो सबके मन को भाई,
महक संतरों वाली आई। 
 
केसर-केसर जैसी फांकें,
छिल्के के भीतर से झांकें। 
जब एक कली मुंह में डाली,
बज उठा राग तब भोपाली। 
है स्वाद अहा कितना मीठा,
इसके आगे अमृत फीका। 
कूकी तन-मन में शह‌नाई। 
 
हरे-हरे कुछ पीले-पीले। 
बैठे दूल्हे सजे-सजीले। 
कुछ जिद्दी, कुछ बहुत हठीले। 
बातों में भी बहुत रसीले। 
ग्राहक को कैसे ललचाते। 
आंखों-आंखों में मुस्काते। 
मिट्ठू हुए मियां स्वयं भाई।
 
कहीं तीस रुपए दर्जन हैं। 
कहीं आठ सौ रुपए मन हैं। 
कहीं आठ रुपए का नग है,
मूल्य एक-सा ही लगभग है। 
भाव अभी शायद कम होंगे,
तब ही तो थैले भर लेंगे। 
सब‌के मन में आस जगाई। 
 
मजे-मजे से बच्चे खाते,
बूढ़े युवक जूस‌ बनवाते। 
तन को ठंडा कर देते हैं,
मन में गंगा भर देते हैं। 
पथिकों से भी आते-जाते,
संदेशा घर-घर भिजवाते। 
कहते सबसे भेंट-भलाई। 

 
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