बाल कविता : रेन कुटी

प्रभुदयाल श्रीवास्तव
मंगलवार, 19 अगस्त 2014 (12:43 IST)
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सुबह-सुबह चिड़िया चिल्लाई,
इसे काटते क्यों हो भाई?
पेड़ हमारे स्थायी घर,
यहीं सदा मैं रहती आई।

इसी पेड़ पर बरसों पहले,
एक चिड़े से हुई सगाई।
तिनका-तिनका जोड़-जोड़कर,
मैंने दुनिया एक सजाई।

इसी पेड़ की किसी खोह में,
अंडे बहुत दिए हैं मैंने।
पाल-पोसकर बड़े किए हैं,
चूजे मैंने यहीं सलौने।

यहीं ठंड काटी है मैंने,
बिना रजाई या कंबल के।
यहीं ग्रीष्म में कूदे हैं हम,
इन डालों पर उछल-उछल के।

अगर पेड़ काटोगे तो हम,
बेघर होकर कहां रहेंगे।
डालों की थिरकन पर पत्तों,
की कव्वाली कहां सुनेंगे।

अरे लकड़हारे वापस जा,
दाल यहां पर नहीं गलेगी।
आज हमारी 'रेन कुटी' पर,
क्रूर कुल्हाड़ी नहीं चलेगी।
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