बाल कविता : रामदुलारी...

प्रभुदयाल श्रीवास्तव
रामदुलारी के घर में, 
कुल बनीं रोटियां चार।


 
दो मुट्ठी आटा मिल पाया,
डिब्बा दो-दो बार झड़ाया।
 
दाल-साग का नहीं ठिकाना,
कैसे बन पाए अब खाना।
 
मां से काम नहीं होता है,
बाबूजी हैं बीमार/ कुल बनीं रोटियां चार।
 
रामदुलारी शाला जाए,
या घर में ही हाथ बंटाए।
 
सोच रही मजदूरी कर ले,
बर्तन का ही काम पकड़ ले।
 
रुपए रोज कमा लाएगी।
वह मानेगी न हार/ कुल बनीं रोटियां चार।
 
छोटा भाई अभी तक भूखा,
रूखे बाल बदन है सूखा।
 
दो दिन से कुछ भी न खाया,
शाला भी वह न जा पाया।
 
रामदुलारी खुद को पाती,
बेबस और लाचार/ कुल बनीं रोटियां चार।
 
हिम्मत नहीं मगर वह हारी,
ले आई भाजी-तरकारी।
 
सब्जी लो आवाज लगाई,
दो सौ रुपए कमाकर लाई।
 
अब तो खुश है रामदुलारी,
श्रम नहीं गया बेकार/ कुल बनीं रोटियां चार। 
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