बाल कविता : जितनी जल्दी हो...

प्रभुदयाल श्रीवास्तव
अब तो लगता गरमी आए, जितनी जल्दी हो।  
शाला की छुट्टी हो जाए, जितनी जल्दी हो।


 
दौड़-भागकर पहुंचें गांव के, घर के बाहर। 
वहीं खड़ी दादी मिल जाए, जितनी जल्दी हो।  
 
रोज-रोज दादी तो मुझको, सपने में आती।  
रोज गूंथती चोटी मेरी, कंगन पहनाती। 
 
अब तो सपना सच हो जाए, जितनी जल्दी हो।  
कंडे-लकड़ी-चूल्हे वाली, रोटी अमृत-सी। 
 
उस रोटी पर लगा गाय का, देशी ताजा घी।
काश! मुझे हर दिन मिल जाए, जितनी जल्दी हो।
 
किसी रेलगाड़ी में रखकर, गांव उठा लाऊं।  
दादी वाला आंगन अपनी, छत पर रखवाऊं।
 
बचपन उसमें दौड़ लगाए, जितनी जल्दी हो।  
बचपन वाली नदी नील सी, सूखी-सूखी है।
 
कल ही तो दादी ने ऐसी, चिट्ठी भेजी है। 
राम करे जल से भर जाए, जितनी जल्दी हो।

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