लघुकथा : दया नहीं, अपनापन

सुशील कुमार शर्मा
'मोहन तुम यहां क्या कर रहे हो? कक्षा में क्यों नहीं आए?' शिक्षक ने बगीचे में एकांत में बैठे मोहन से पूछा।


 

 
मोहन सुबकने लगा।
 
शिक्षक ने बहुत प्यार से पूछा, 'बेटा मोहन, क्या बात है? बोलो।'
 
'सर, कक्षा के बच्चे मुझ पर दया करते हैं, मुझे 'बेचारा' कहते हैं', मोहन ने सुबकते हुए कहा।
 
मोहन 10 साल का कक्षा 5वीं का छात्र था। बचपन में ही पोलियो के कारण उसके दोनों पैर खराब हो गए थे। ट्राइसिकल से विद्यालय आता है। उसकी कक्षा के छात्र उससे सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करते हैं लेकिन उसके साथ खेलते नहीं हैं।
 
मोहन को लगता है कि वे सब उसकी विकलांगता के कारण उस पर रहम और दया का व्यवहार करते हैं। न कोई उससे मजाक करता है और न ही कोई उससे झगड़ता है। सबकी आंखों में उसके लिए दया है, अपनापन नहीं। यही बात उसका मन दुखा गई।
 
शिक्षक ने मोहन को चुप कराते हुए कहा, 'मोहन, मत रोओ। मैं इस संबंध में कक्षा में सभी से बात करूंगा।'
 
'सर, मुझे मेरे दोस्तों से दया नहीं, अपनापन चाहिए', मोहन ने सुबकते हुए कहा।
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