उत्तराखंड, महाराष्ट्र, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में बाघों की तादाद में इजाफा हुआ है। बिहार, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारख़ंड, राजस्थान, उडीसा, मिजोरम, उत्तर-पश्चिम बंगाल और केरल में संख्या जस की तस बनी रही पर मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में बाघों की संख्या में गिरावट दर्ज हुई है जिसका कारण शिकार और बाघ के नैसर्गिक क्षेत्र में आई कमी है। रणथंभौर, बाँधवगढ़, कॉर्बेट नेशनल पार्क, तेदोबा जैसे टाइगर रिजर्व के आस-पास बढ़ती मानव गतिविधियाँ के कारण इनसान और बाघों की मुठभेड़ के मामले भी बढ़े हैं।
मध्यप्रदेश में टाइगर स्टेट का दर्जा अब खतरे में आ गया है। पिछले सालों में म.प्र में 43 बाघों की मौत हो चुकी है। वैसे तो बाघों की तादाद घटी है पर इस बात के भी सबूत मिले है कि बाघों द्वारा नए प्राकृतिक क्षेत्रों जैसे पालपुर-कुनो और शिवपुरी में अपने आवास बनाए जा रहे हैं। यह बाघों के आवासीय क्षेत्रों में आती कमी की वजह से हुआ है। अकेले रहने के आदी बाघों को शिकार और प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अपना क्षेत्र बनाना पड़ता है जोकि 50-100 वर्ग किमी तक हो सकता है। कम पड़ती जगह के कारण बाघों के आपसी टकराव का अंदेशा भी बराबर बना रहता है।
इस गणना में वन विभाग के अधिकारियों के अलावा दो एनजीओ सेंटर फॉर वॉइल्ड लाइफ स्टडीज और नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन भी शामिल थे। इसके लिए फील्ड सर्वे के अलावा कई आधुनिक तकनीकें जैसे बाघ संरक्षित क्षेत्रों में जलाशयों जैसे अहम स्थानों पर अत्याधुनिक कैमरे स्थापित किए गए। इसके द्वारा 38 प्रतिशत बाघों की 615 तस्वीरें ली गई। इसके अलावा पैरों के निशान, रेडियो कॉलर और उपग्रह मैपिंग प्रणाली का भी गणना में इस्तेमाल किया गया।
बाघों की बढ़ती संख्या जहाँ एक राहत की आस जगाती है वहीं इस बात का अहसास भी दिलाती है कि अब समय आ गया है कि हम इस अभियान के दूसरे चरण '
बाघों के आवास, जंगलों को बचाएँ' की शुरूआत करें। इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों को मिल-जुल कर कदम उठाना होगा। वोट बटोरने के लिए लोगों को पट्टे पर दिए जा रहे वन क्षेत्र जंगल का सर्वनाश ही करेंगे। जरूरत है प्राकृतिक संपदा को बचाने की, क्योंकि हमारा भविष्य इसी पर निर्भर है।