परमाणु परिवहन में पसीना छूट गया

राम यादव
शनिवार, 3 दिसंबर 2011 (17:01 IST)
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23 से 28 नवंबर तक जर्मन पुलिस की शामत आई हुई थी। 30 हजार से अधिक पुलिस कर्मियों और जहारों प्रदर्शनकारियों के बीच रात-दिन 'तू डाल-डाल, तो मैं पात-पात' जैसा मुकाबला चल रहा था। जब भी जर्मनी के परमाणु बिजलीघरों का रेडियोधर्मी कचरा पुनरसंसाधन के लिए फ्रांस जाता है या वहाँ से वापस आता है, तब यही होता है। प्रदर्शनकारी कचरे के परिवहन वाले रेल और सड़क मार्ग को जी-जान से रोकने पर उतारू रहते हैं, तो पुलिस कर्मी उसे खुला रखने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देते हैं।

रेडियो और टेलीविजन की चाहे जो चैनल हो, पत्र या पत्रिका का चाहे जो नाम हो या इंटरनेट का चाहे जो पोर्टल, नवंबर के पूरे अंतिम सप्ताह भर जर्मनी में हर दिन, हर जगह बस एक ही विषय छाया हुआ था- 'कैस्टर ट्रांसपोर्ट' कहाँ तक पहुँचा है? परमाणु कचरे वाले आगार गोरलेबन तक पहुँचने में उसे अभी कितना समय और लगेगा? 'नौ दिन चले अढ़ाई कोस' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए इस बार इस परिवहन को रेकॉर्डतोड़ समय लगा-1200 किलोमीटर तय करने में 125 घंटे! पिछले साल भी बहुत समय लगा था, लेकिन 92 घंटे से अधिक नहीं।

कैस्टर ( CASTOR) कहते हैं उच्च रेडियोधर्मता वाली परमाणु सामग्री के संग्रह और परिवहन के लिए भारी इस्पात के बने एक विशेष प्रकार के कंटेनर को। यह नाम अंग्रेजी के 'कैस्क फॉर स्टोरेज ऐंड ट्रांसपोर्ट ऑफ रेडियो ऐक्टिव मैटीरियल' का प्रथमाक्षर संक्षेप है। हर कैस्टर करीब 6 मीटर लंबा, 2.5 मीटर ऊँचा और भरा होने पर 110 से 125 टन तक भारी होता है। इस्पात की बनी 45 सेंटीमीटर मोटी उस की दीवारों के कारण अकेले उसका अपना वजन ही 100 टन के करीब होता है।

यह सब इसलिए, ताकि वह अपने भीतर रखी परमाणु सामग्री के भारी विकिरण को बाँधे रखे, उस के ऊँचे तापमान को सह सके और परिवहन के दौरान किसी रेल या सड़क दुर्घटना, ऊँचाई पर से गिरने या किसी आतंकवादी हमले को भी काफी हद तर झेल सके। कैस्टर का परिवहन सपाट सतह वाले विशेष ट्रकों या उसी तरह के मालगाड़ी डिब्बों पर रख कर होता है।

जर्मनी का फ्रांस के साथ समझौता : जर्मनी का फ्रांस के साथ एक समझौता है कि वह अपने परमाणु बिजलीघरों से निकले तीव्र रेडियोधर्मी कचरे को अपने किसी अंतरिम आगार में रखने से पहले फ्रांस के 'ला आग' पुनरसंसाधन संयंत्र में भेजेगा। यह परमाणु कचरा मुख्य रूप से परमाणु बिजलीघरों के रिएक्टरों से निकली ईंधन की उन छड़ों के रूप में होता है, जिनका ईंधन वैसे तो खप चुका है, पर जिन में खरनाक रेडियोधर्मी तत्वों के साथ-साथ फिर से इस्तेमाल लायक कुछ विखंडनीय पदार्थ अब भी बचा हुआ है।

' ला आग' में इस बचे-खुचे विखंडनीय पदार्थ को अलग कर उसे दुबारा इस्तेमाल लायक बनाया जाता है। शेष हिस्से को पहले पिघले हुए ढलवाँ काँच के भीतर कास्टिंग द्वारा बेलन जैसा आकार देकर दफना दिया जाता है और फिर उच्चकोटि के इस्पाती सिलिंडरों में सील कर दिया जाता है। 43 सेंटीमिटर व्यास और 130 से 150 सेंटीमीटर लंबाई वाले हर बेलनाकार सिलंडर का वजन 400 किलो तक हो सकता है। इन सिलिंडरों को 'कैस्टर' कंटेनरों में रख कर रेलमार्ग से जर्मनी के लिए रवाना करने से पहले उन्हें कुछ समय तक ठंडा होने देने के लिए एक विशेष अंतरिम आगार में रखना पड़ता है।

परमाणु ऊर्जा को त्यागने का जर्मन संकल्प: इस बीच स्थिति थोड़ी-सी बदल गई है। जर्मनी ने 2005 में ही परमाणु ऊर्जा को धीरे-धीरे त्याग देने का निर्णय कर लिया। इसलिए, अब वह परमाणु कचरे की कोई नई खेप पुनरसंसाधन के लिए फ्रांस नहीं भेजता। अब फ्रांस से केवल वह पुरानी पुनरसंसाधित सामग्री वापस आती है, जो अतीत में भेजे गए कचरे से बनी है और परिवहन लायक ठंडा होने तक वहाँ रखनी पड़ी थी। इस बार के कैस्टर परिवहन के बाद अब फ्रांस से संभवतः और कोई परिवहन नहीं आएगा। लेकिन, दो साल बाद, ब्रिटेन के सेलैफील्ड पुनरसंसाधन संयंत्र से नए परिवहन आने शुरू होंगे, जो 2017 तक चलेंगे।

परमाणु परिवहन, कम से कम जर्मनी में, ट्रक या मालगाड़ी से सामान भेजने-मँगाने जैसे कोई साधरण परिवहन नहीं होते। उन की लंबी तैयारी करनी पड़ती है। हजारों पुलिसकर्मयों और अर्धसैनिक बलों की सहायता लेनी पड़ती है। करोड़ों यूरो का खर्च बैठता है।

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बीवी-बच्चों और बोरिया-बिस्तर समेत धरना : फ्रांस में 'ला आग' से अब तक आए परिवहनों को करीब 1200 किलोमीटर रेलमार्ग से और 25 किलोमीटर सड़कमार्ग से गुजरना पड़ता रहा है। जर्मनी में परमाणु ऊर्जा के प्रति विरोध यूक्रेन में चेर्नोबिल या जापान में फुकूशीमा वाली दुर्घटनाओं के दशकों पहले से इतना प्रबल रहा है, कि हर परमाणु परिवहन पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच रणभूमि बन जाता है। प्रदर्शनकारी हर परिवहन के समय सड़कों और रेल पटरियों पर धरना देने बैठ जाते हैं।

बर्फीली ठंड हो या तपती धूप, दिन हो या रात, बस्ती हो वीराना- प्रदर्शनकारी बीवी-बच्चों और बोरिया-बिस्तर समेत धरना देने या पुलिस के साथ मार-पीट करने पहुँचे रहते हैं। वे कब कहाँ टपक पड़ें, कोई नहीं जानता। वे सड़कों पर लेट जाते हैं। लोहे की जंजीरों से अपने आप को रेल की पटिरियों बाँध लेते हैं। सड़कों और पटरियों पर टनों भारी बाधाएँ रख देते हैं।

हेलीकॉप्टर देता है मालगाड़ी को संरक्षण : हर मालगाड़ी के साथ प्रायः दो इंजन होते हैं, ताकि एक यदि किसी बाधा से टकरा जाए, तो दूसरा गाड़ी को फिरभी खींच सके। इंजन के ठीक पीछे करीब सात यात्री डिब्बे होते हैं, जिन में पुलिसकर्मी और भारत की केंद्रीय रिज़र्व पुलिस की तरह के संघीय पुलिस बल के जवान बैठे रहते हैं। इन डिब्बों के बाद होते हैं कैस्टर ढोने वाले कंटेनर वैगन, उन के बाद फिर कुछ यात्री डिब्बे और अंत में कम से कम फिर एक इंजन। इस तरह, जरूरत के अनुसार, गाड़ी आगे और पीछे, दोनो तरफ जा सकती है। यही नहीं, जर्मन भूमि के ऊपर आकाश में अक्सर एक हेलीकॉप्टर भी चक्कर लगा रहा होता है, यह देखने और बताने के लिए रास्ता कहाँ तक साफ़ है कहाँ कोई समस्या सामने आ सकती है। कैस्टरों वाली मालगाड़ी से कुछ पीछे डीज़ल इंजनों वाली एक और गाड़ी चल रही होती है। ये डीजल ईंजन आपात स्थिति के लिए रिजर्व के तौर पर चल रहे होते हैं।

एंबुलेंस वाहन और दमकल कर्मचारी भी : जहाँ-जहाँ प्रदर्शनकारियों के जुटने की आशंका होती है, वहाँ रेल पटरियों के दोनो तरफ़ घंटों पहले से पुलिसवाले पहरा दे रहे होते हैं। वे न केवल पारदर्शी ढाल और हंटर से ही लैस होते हैं, पटरियों से अपने आप को बाँध लेने वालों को छुड़ाने के लिए आवश्यक औज़ार, अश्रुगैस के गोले और पानी की तेज़ धार छोड़ने वाली तोपें ले कर भी आते हैं। एंबुलेंस वाहन और दमकल कर्मचारी भी पहुँचे रहते हैं। प्रदर्शनकारियों की पूरी कोशिश होती है कि वे परमाणु कचरे का परिवहन भले ही न रोक पाएँ, उसे अपने गंतव्य पर हुँचने में अधिक से अधिक देर लगाएँ। इस में वे हमेशा सफल भी होते रहे हैं। इसीलिए इस बार भी ऐसा हो पाया कि जिस मालगाड़ी को सामान्य स्थिति में 15-16 घंटों में अपने गंतव्य पर पहुँच जाना चाहिये था, उसे 125 घंटे लग गए।

परमाणु परिवहन को रोकने की अनोखी युक्तियाँ : उदाहरण के लिए, पर्यावरणवादियों की संस्था ग्रीनपीस के दो सदस्यों ने 26 नवंबर को सीमेंटकंक्रीट का एक बड़ा-सा टुकड़ा जंमीन में गाड़ कर उस के साथ एक ट्रांसपोर्ट वैन बाँध दिया और उस टुकड़े को पकड़ कर स्वयं भी वैन में इस तरह बैठ गए कि पुलिस यदि वैन को हटाती तो उन के हाथ कट जाते। पुलिस को इस बाधा को दूर करने में छह घंटे लग गए।

26 नवंबर की रात को ही, जब कैस्टर परिवहन वाली मालगाड़ी अपने अंतिम स्टेशन से केवल 11 किलोमीटर दूर रह गई थी, चार किसानों ने पता नहीं कैसे सीमेंटकंक्रीट का बना एक महाभारी पिरामिड पटरियों के बीच पहुँचाया और अपने आप को जजीरों से उससे बाँध लिया। पुलिस उनको छुड़ा नहीं पाई। पुलिस के हार मान लेने के बाद चारों ने स्वयं ही अपने आप को छुड़ाया। साढ़े पाँच घंटे तक मालगाड़ी रुकी रही।

डेढ़ सौ पुलिस, साढे तीन सौ प्रदर्शनकारी घायल: प्रेक्षकों का कहना है कि वैसे तो इस बार के प्रदर्शन काफी शांतिपूर्ण और समझबूझ भरे रहे, लेकिन कुछ दंगाइयों ने हुड़दंग मचाने की भी कोशिश की। पुलिस यूनियन के एक प्रवक्ता ने कहा कि इन दंगाइयों से निपटने में डेढ़ सै पुलिसकर्मी घायल हो गए। प्रदर्शनकारियों का कहना था कि पुलिस ने इस बार कुछ ज्यादा ही बलप्रयोग किया। उनके 355 साथी घायल हुए हैं, जिन में से पाँच गँभीर रूप से घायल हैं।

पर्यावरणवादी संस्था ग्रीनपीस ने आरोप लगाया कि कैस्टर कैंटेनरों से उससे अधिक रेडियोधर्मी विकिरण बाहर निकलता है, जितना अधिकारीगण दावा करते हैं। डानेनबेर्ग नाम के अंतिम रेलवे स्टेशन पर जब इन कंटेनरों को उतार कर विशेष ट्रकों पर रखा जा रहा था, तब ग्रीनपीस के कुछ सदस्यों ने उनकी रेडियोधर्मिता मापी। उन का कहना है कि कंटोनरों से 14 मीटर की दूरी पर उन्होंने 4 से 5 मिलीसीवर्ट प्रतिघंटा विकिरण मापा। यह तीव्रता इन कंटनरों के वहाँ पहुँचने से कुछ घंटे पहले के मापनों से 600 गुना अधिक है।

नियम यह है कि कैस्टर कंटेनर के ठीक बगल में खड़े होने पर भी यह विकिरण 0.35 मिलीसीवर्ट प्रतिघंटे से अधिक नहीं होना चाहिये। दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ यही है कि परमाणु कचरे का परिवहन जनसाधारण के लिए उतना सुरक्षित कभी नहीं हो सकता, जितना दावा किया जाता है। पुलिसकर्मियों और उन तकनीकी कर्मचारियों के स्वास्थ्य को तो और भी अधिक खतरा होना चाहिए, जिन्हें इन कंटेनरों के पास घंटों बिताने पड़ते हैं।

परमाणु परिवहन तो एक समस्या है। परमाणु कचरे का सुरक्षित ढंग से दीर्घकालिक भंडारण और भी बड़ी ससमस्या है। जर्मनी का गोरलेबन आगार उच्च विकिरणधर्मी परमाणु कचरे का केवल अंतरिम आगार है। अंतिम नहीं। अंतिम या कुछ हजार वर्षों तक के लिए सुरक्षित समझा जा सकने वाला कोई दीर्घकालिक आगार न तो जर्मनी के पास है और न दुनिया के किसी और देश के पास। जर्मनी कम से कम इस सच्चाई को स्वीकार करता है। दूसरे देश इस की बात ही नहीं करते या सरासर झूठ बोलते हैं। जर्मनी की जनता परमाणु ऊर्जा नहीं चाहती। उसका विरोध करती है। विडंबना यह है कि अपने विरोध का भारी खर्च भी उसे ही उठाना पड़ता है। जर्मनी की यात्रा पर आए किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की सुरक्षा तक पर उतना खर्च नहीं आता, जितना परमाणु कचरे के हर परिवहन की पुलिस- सुरक्षा पर आता है।

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