फ़िनलैंड के तुओमास सावोलाइनेन रेडियो खगोल विज्ञान के बॉन स्थित मॉक्स प्लांक संस्थान में ऐसी ही एक शोध परियोजना पर काम कर रहे हैं। उन्हें 300 ऐसी मंदाकिनियों (निहारिकाओं/गैलेक्सियों) पर नज़र रखनी होती है, जहां के कृष्णविवर (किसी वैक्यूम क्लीनर की तरह) आस-पास के तारों, आकाशीय पिंडों या गैसीय बादलों को खींचते हुए गामा किरणों वाले प्लाज़्मा जेट भी पैदा कर रहे हैं।
सूर्य से भी अरबों गुना अधिक द्रव्यमान ब्लैक होल, "ये जेट किसी महाभारी कृष्णविवर के पास बनते हैं," सावोलाइनेन का कहना है। "ऐसी मंदाकिनियों के केंद्र में बैठे कृष्णविवर हमारे सूर्य की तुलना में अरबों गुना अधिक द्रव्यमान से ठसाठस भरे होते हैं। वे अपने आकर्षणबल से जिस तरह के जेट उत्प्रेरित करते हैं, उनमें निहित पदार्थकणों की गति प्रकाश की गति के क़रीब-क़रीब बराबर की और ब्रह्मांड में उनकी लंबाई लाखों-करोड़ों प्रकाशवर्ष जितनी होती है।"
ज्ञातव्य है कि लगभग 3 लाख किलोमीटर प्रतिसेकंड की गति से चलने वाला प्रकाश एक वर्ष में जो दूरी तय करता है, वह 9 खरब 50 अरब किलोमीटर के बराबर है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे ब्रह्मांड में कैसी-कैसी अकल्पनीय दूरियां हैं और कैसी-कैसी अकल्पनीय घटनाएं होती रहती हैं।
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तारा पिचक कर तश्तरी बन जाता है : होता यह है कि जब कभी कोई तारा या गैसीय बादल किसी महाभारी कृष्णविवर के पास भटक जाता है, तो उसके गुरुत्वाकर्षणबल से खिंचता हुआ एक विशालकाय तश्तरी जैसा चपटा हो जाता है। यह तश्तरी पानी में पड़ी भंवर की तरह कृष्णविवर के फेरे लगाते हुए लगातार उसकी तरफ खिंचती जाती है। खिंचते हुए उसके घूमने की गति लगातार बढ़ती जाती है।
तब, एक समय ऐसा आता है, जब तश्तरी में निहित पदार्थ आपसी घर्षण के कारण गरम होते-होते अतितप्त प्लाज्मा में बदल कर किसी लेज़र बीम की तरह तश्तरी के दोनो ओर, खरबों किलोमीटर लंबी, एक सीधी रेखा वाले जेट का रूप ले लेता है। कृष्णविवर में तश्तरी के समाहित होने से कुछ ही पहले, इस जेट में निहित मूलकण, कृष्णविवर में समाने के बदले, मानो छटक कर उससे परे चले जाते हैं और पृथ्वी पर से देखने पर एक लंबी प्रकाश-किरण की तरह नज़र आते हैं।
सावोलाइनेन का कहना है कि वे और उनके साथी मुख्यतः ऐसी मंदाकिनियों पर नज़र रखते हैं, जिन में दिखने वाले प्लाज़्मा जेट हमारी पृथ्वी की दिशा में आते प्रतीत होते हैं। इसका लाभ यह है कि तब इन जेटों में होने वाली सारी क्रियाएं तेज़ी से होती नज़र आती हैं। जिस किसी मंदाकिनी में उन्हें ऐसी घटना का सुरग मिलता है, उसकी वे हर तीन सप्ताह पर टोह लेते रहते हैं।
अद्भुत ही नहीं, अबूझ भी : अदृश्य कृष्णविवरों के अस्तित्व और उनकी गतिविधियों का अता-पता देने वाली ये घटनाएं अद्भुत तो हैं ही, अबूझ भी हैं। कोई नहीं जानता कि जो कृषणविवर अपने पास से गुज़रते हुए प्रकाश को भी खींच कर निगल जाते हैं, उनके चुंगुल में फंसे और उनके पेट में समा रहे किसी तारे या बादल में निहित अणुओं-परामाणुओं का एक छोटा-सा हिस्सा किस तरह उनसे पिंड छुड़ा कर परे छटक जाता है।
अब तक के अवलोकनों का निचोड़ निकोलते हुए फ़िनलैंड के तुओमास सावोलाइनेन का कहना है कि "लगता है, ब्लैक होल का सुराग देने वाले प्लाज़्मा की जेट-धाराएं चुंबकीय बलक्षेत्रों से बनती हैं। ब्लैक होल द्वारा खींची जा रही चीज़ का द्रव्य जब उसकी तरफ जाते हुए उसके फेरे लगाने लगता है, तब एक तरह की विशाल चुंबकीय कुप्पी-सी बन जाती है।"
उनका कहना है कि जिस तरह किसी कुप्पी में तेज़ी से पानी उड़ेलने पर उसमें भंवर बनती है और कुप्पी की दीवार के पास का पानी बाक़ी पानी के दबाव से कुछ उठ-सा जाता है, शायद उसी तरह कृष्णविवर में समा रही, भंवर-खाती, तश्तरी के अतितप्त प्लाज़्मा का कुछ हिस्सा भी चुंबकीय बलक्षेत्र के दबाव से संघनित हो कर कसी हुई जेट-धारा का रूप ले लेता है और तश्तरी के ऊपर तथा नीचे की ओर छटक जाता है।
ब्लैक होल की पहुंच 300 प्रकाशवर्ष दूर तक, अगले पन्ने पर...