जर्मनी और मध्य पूर्व: नैतिकता और बाजार की एक कहानी

DW
शनिवार, 18 सितम्बर 2021 (16:33 IST)
रिपोर्ट: राल्फ बोजेन
 
जर्मनी की विदेश नीति स्पष्ट रूप से मूल्य आधारित है। लेकिन जब लोकतंत्र, कानून का शासन और मानवाधिकार, वाणिज्य और व्यापार के तर्क से टकराते हैं तो क्या होता है? जर्मनी के विदेश मंत्रालय ने अपने होमपेज पर जर्मन विदेश नीति के मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में 'नीति और सुरक्षा, लोकतंत्र और मानवाधिकारों को बढ़ावा देने और बहुलतावाद के प्रति प्रतिबद्धता' को सूचीबद्ध किया है।
 
हालांकि, कुछ ही पंक्तियों के बाद, यह भी लिखा गया है कि जर्मनी, एक व्यापारिक राष्ट्र के रूप में, एक प्रभावी विदेशी आर्थिक नीति में विशेष रुचि रखता है 'जो कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय बाजारों में मौके तलाशने और व्यापार करने की स्थितियों में सुधार करने में मदद करता है।'
 
तो क्या होता है जब ये दो मूलभूत सिद्धांत टकराते हैं?
 
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जर्मन सरकार ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का स्वागत किया और 'अरब स्प्रिंग' के रूप में मशहूर आंदोलन के जरिए लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास किया- भले ही वह आंदोलन विफलता और निराशा के साथ समाप्त हो गया।
 
जर्मन राजनेताओं को अरब जगत में मानवाधिकारों के हनन की निंदा करते हुए सुनना आम बात है, जिसमें यातना, विपक्षी कार्यकर्ताओं को बंदी बनाना, महिलाओं का उत्पीड़न जैसे मामले शामिल हैं। जर्मनी ने भी 7,70,000 सीरियाई शरणार्थियों को शरण दी और पीड़ा और आवश्यकता के समय कई लोगों की मदद की।
 
साथ ही, जर्मनी ने मिस्र और सऊदी अरब जैसे देशों के साथ व्यापारिक संबंध बनाने के लिए भी कड़ी मेहनत की है। जिन देशों से उनके मानवाधिकार रिकॉर्ड्स को देखते हुए जर्मनी को शायद वास्तव में दूर रहना चाहिए था। और सबसे बढ़कर, व्यापारी और राजनेता हैं जो अक्सर सैन्य उपकरणों के आकर्षक व्यापार से आंखें मूंद लेने को तैयार रहते हैं। आलोचकों का तो यहां तक कहना है कि स्थिति इससे भी बदतर है।
 
घरेलू नीति पर नाटकीय प्रभाव
 
जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल एंड सिक्योरिटी अफेयर्स के विशेषज्ञ गीडो स्टाइनबर्ग कहते हैं कि अकेले शरणार्थियों की बड़ी संख्या ने मध्य पूर्व में जर्मनी के महत्वपूर्ण हितों के महत्व को समझना मुश्किल बना दिया है। डीडब्ल्यू से बातचीत में स्टाइनबर्ग कहते हैं, 'साल 2015 में, हमने देखा कि कैसे उत्तरी अफ्रीका सहित पूरे मध्य पूर्व की घटनाएं जर्मनी में घरेलू स्थिति पर नाटकीय प्रभाव डाल सकती हैं।'
 
स्टाइनबर्ग का मानना ​​है कि जर्मनी को अपने हितों की स्पष्ट परिभाषा के साथ सामने आना चाहिए। उन्होंने तीन प्राथमिकताओं की रूपरेखा तैयार की है। पहला- इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों के और प्रसार को रोकना। दूसरा- क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देकर बड़े पैमाने पर शरणार्थी प्रवाह से बचना। और तीसरा- एक प्रभावी आतंकवाद विरोधी रणनीति तैयार करना।
 
'अरब दुनिया के प्रति अधिक मजबूत दृष्टिकोण' की बात करने वालों में कर्स्टिन मुलर भी हैं जो कि जर्मन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस में मध्य पूर्व मामलों की जानकार हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में वह सबसे पहले संयुक्त अरब अमीरात को हथियारों की बिक्री के पीछे के तर्क पर सवाल उठाती हैं। वह कहती हैं, 'यूएई इस क्षेत्र में जर्मनी का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। दोनों पक्ष 'रणनीतिक साझेदारी' कहे जाने वाले रिश्ते को भी कायम रखते हैं। और हालांकि, संयुक्त अरब अमीरात यमन युद्ध में काफी सक्रियता से शामिल है, फिर भी वह यूरोपीय और जर्मन स्रोतों से हथियार खरीद सकता है।'
 
अरबों डॉलर का निर्यात
 
ऐसा लगता है कि जर्मनी संदिग्ध साझीदारों के साथ हथियारों के सौदों में कुछ हिचकिचाता है। इस साल की शुरुआत में ग्रीन पार्टी की ओर से पूछे गए एक सवाल के जवाब में आर्थिक मंत्रालय द्वारा दिए गए जवाब से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। बयान के मुताबिक साल 2020 में जर्मन सरकार ने यमन या लीबिया में हो रहे संघर्ष में उलझे देशों जैसे- मिस्र, कतर, यूएई, कुवैत, बहरीन और जॉर्डन समेत नाटो के सदस्य देश तुर्की को करीब 1.36 अरब डॉलर के हथियारों के निर्यात को मंजूरी दी।
 
कर्स्टिन म्युलर सऊदी अरब के साथ संभावित सौदों की भी काफी आलोचना करती हैं, हालांकि फिलहाल इसे अस्थायी रूप से रोक दिया गया है। म्युलर कहती हैं, 'पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या के बाद सऊदी अरब काफी दबाव में आ गया और हथियारों के सौदे पर रोक लगा दी गई। मेरी राय में, यमन युद्ध में इसकी भूमिका और इनके मानवाधिकार रिकॉर्ड इन्हें हथियारों की आपूर्ति पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के लिए पर्याप्त होंगे।'
 
न सिर्फ जर्मनी की हथियार नीति असंगत है, बल्कि यह सैन्य उपकरणों के निर्यात के लिए अपने खुद के दिशानिर्देशों का भी उल्लंघन करती है, जो संघर्ष या संकट के समय में तथाकथित तीसरे देशों को सैन्य उपकरणों के वितरण पर रोक लगाती है। तीसरे देश से मतलब ऑस्ट्रेलिया जैसे उन देशों से है जो न तो यूरोपीय संघ के सदस्य हैं और न ही नाटो के। इस बीच जर्मनी में देश की मध्य पूर्व नीति के पुनर्मूल्यांकन का दबाव बढ़ रहा है।
 
अधिक जिम्मेदारी लेने का समय
 
जर्मनी में सितंबर के अंत में संसदीय चुनाव हैं जो जर्मन चांसलर के रूप में अंगेला मैर्केल के 16 साल के कार्यकाल के अंत का भी संकेत देगा। इस चुनाव में जो कोई भी अगले नेता के रूप में उभरता है, उसे अपने समय का एक हिस्सा अमेरिका से निपटने में लगाना पड़ेगा जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक निर्णायक भूमिका निभाने के लिए बर्लिन पर दबाव बनाए रखने के लिए तैयार है।
 
ऐसा लगता है कि जर्मनी से अधिक जिम्मेदारी लेने की उम्मीद की जाएगी जिसमें मध्य पूर्व भी शामिल है, जहां अब तक लीबिया में संघर्ष के दौरान मध्यस्थ के तौर पर उसकी एक छोटी भूमिका रही है।
 
तनाव का नया स्रोत: चरम मौसम की घटनाएं 
 
वैश्विक समुदाय जलवायु परिवर्तन में एक अभूतपूर्व चुनौती का सामना कर रहा है, जिसे तभी रोका या लड़ा जा सकता है जब बाजार और नैतिकता को एक दूसरे के सहयोग के लिए बनाया जाए। दुनिया के कई हिस्सों की तरह मध्य पूर्व को भी चरम मौसम की घटनाओं की बढ़ती संख्या से खतरा है, जिसे स्टीफन लुकास 'पहले से मौजूद समस्याओं को और बढ़ाने वाले' के रूप में वर्णित करते हैं। उनका डर यह है कि इस क्षेत्र को और अधिक अस्थिर किया जाएगा, अधिक से अधिक लोगों को उन शरणार्थियों में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जाएगा जो पहले से ही यूरोप में अपना रास्ता बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
 
हैम्बर्ग में मध्य पूर्व के मामले में एक व्याख्यान में लूकास सचेत करते हुए कहते हैं, 'निश्चित रूप से हमें एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि अगर हम लीबिया, सऊदी अरब या यूएई को अपना तेल जमीन में छोड़ने के लिए कहना शुरू कर दें, तो वे खुश नहीं होंगे। आखिरकार, उनका राजस्व मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन स्रोतों से ही मिलता है।'
 
स्टीफन लुकास कहते हैं कि बाजार और नैतिकता को एक साथ रखने का कोई विकल्प नहीं है। उनके मुताबिक, 'लब्बोलुआब यह है कि यूरोप के लिए मध्य पूर्व के देशों को आर्थिक प्रोत्साहन सहित नए विकल्पों और नए प्रोत्साहनों के साथ आने में मदद करना एक नैतिक और आर्थिक अनिवार्यता है। बहुपक्षीय शांति निर्माण की दिशा में मार्गदर्शक बनिए।'
 
लुकास एक महत्वाकांक्षी दृष्टि की रूपरेखा बनाते हुए कहते हैं, 'एक समन्वित वातावरण और जलवायु समझौता अधिक से अधिक राजनीतिक सहयोग की दिशा में एक कदम बढ़ा सकता है। और बदले में, यह एक तरफ नैतिकता और दूसरी तरफ बाजार संचालित अहंकार के बीच एक पुल बनाने में हमारी मदद कर सकता है।'

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