g20 summit: जी20 की कामयाबी में नरेन्द्र मोदी की कूटनीति की छाप

DW
सोमवार, 11 सितम्बर 2023 (09:00 IST)
-महेश झा
 
g20 summit: भारत की अध्यक्षता में हुए जी20 की कामयाबी इस बात में है कि उसने शिखर सम्मेलन को नाकाम नहीं होने दिया। पश्चिमी देशों के साथ रूस और चीन की सहमति की कीमत न्यूनतम सहमति थी जिसने मतभेद मिटाए नहीं, उन्हें टाल भर दिया है।
 
भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जी20 शिखर सम्मेलन के संचालन में अलग तरह के नेतृत्व का परिचय दिया। जिस तरह से सम्मेलन का आयोजन हुआ उसने न सिर्फ देश में विपक्ष को परेशान किया बल्कि अंतरराष्ट्रीय नेताओं को भी कई बार भौंचक रह जाने पर मजबूर किया। आखिर में जो सामने आया, वह सबको संतुष्ट करने वाला था। भले ही सबकी मांगें पूरी नहीं हुईं लेकिन विभाजित से लग रहे समूह में सबके लिए सहमति के पैंतरे थे।
 
भारतीय विपक्ष के साथ साथ जब विश्व नेता और अंतरराष्ट्रीय मीडिया इस बात में उलझे थे कि क्या नरेन्द्र मोदी की सरकार 'इंडिया' का नाम बदलकर 'भारत' करने जा रही है? भारत के राजनयिक और सम्मेलन के आयोजक उस समय नेताओं की 'नई दिल्ली घोषणा' को अंतिम रूप देने में लगे थे। और सम्मेलन शुरू होने के बाद जो दिख रहा था, उसमें आने वाली चीजों की कोई झलक नहीं थी जबकि जी20 नेताओं को पता था कि घोषणा पर अधिकारियों की सहमति हो चुकी है।
 
शिखर सम्मेलन की सबसे बड़ी सफलता यही है कि संचालक के रूप में नरेन्द्र मोदी ने इसे विफल नहीं होने दिया। ये सफलता इसलिए संभव हुई कि एक ओर पश्चिमी देशों ने तो दूसरी ओर रूस और चीन ने सहमति दी और इस सहमति के लिए उन्हें रियायतें देनी पड़ीं। घोषणापत्र दरअसल न्यूनतम सहमति है। अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलनों की एक परिपाटी है कि फैसलों पर आखिर तक खींचतान चलती रहती है और आखिर में हर नेता उसे अपनी सफलता बताता है, भले ही नतीजे कितने ही कमजोर क्यों न हों।
 
शिखर सम्मेलन में नए किस्म की कूटनीति
 
लेकिन भारत ने, और यह बात सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी पर ही लागू नहीं होती, उसके अधिकारियों ने भी कूटनीति की अभूतपूर्व संभावनाओं का परिचय दिया और अंतिम घोषणा से सहमति नहीं रखने वालों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ा। ये भारत की कामयाबी तो है ही, ये कूटनीति की भी कामयाबी है। खासकर ऐसे विश्व में जो हर मुद्दे पर विभाजित है और मतभेदों के कारण मानव जाति के लिए गंभीर खतरों का मुकाबला करने में नाकाम है। खासकर पर्यावरण सुरक्षा पर ठोस कदमों की उम्मीद थी, जो पूरी नहीं हुई।
 
नई दिल्ली शिखर सम्मेलन की विफलता का मतलब होता जी20 की विफलता। वीटोधारी ताकतों के बीच विवाद के चलते शिथिल पड़े संयुक्त राष्ट्र के बाद यही मंच दुनियाभर के लोगों के लिए उम्मीद की किरण है। यहां के फैसले अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं और इस तरह उनकी आय, उनके रहन-सहन और उनके भविष्य को। अगर नई दिल्ली सम्मेलन विफल हो जाता तो उम्मीद की ये किरण खत्म हो जाती। अब विश्व नेताओं के सामने घोषणा पत्र के वादों को पूरा करने की चुनौती है और सबसे बड़ा वादा है एक भविष्य का वादा।
 
अफ्रीकी संघ के आने से व्यापक हुआ जी20
 
सम्मेलन की एक सफलता ये भी है कि अफ्रीकी संघ को भी इसमें शामिल कर लिया गया है। सालों तक 19 देशों के अलावा सिर्फ यूरोपीय संघ इसका सदस्य था। अब अफ्रीकी संघ के इसमें शामिल हो जाने से न सिर्फ जी20 का आकार बढ़ेगा बल्कि 1.3 अरब लोगों की आबादी के शामिल होने से इसके फैसलों का असर भी बढ़ेगा। इस फैसले से इलाके में अफ्रीकी संघ की प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी और 55 सदस्य देशों के विकास को प्रभावित कर पाएगा।
 
निश्चित तौर पर इस सम्मेलन के बाद विश्व पर पश्चिम का वर्चस्व कम हुआ है। भारत के साथ-साथ ब्राजील और इंडोनेशिया या तुर्की जैसे देश अंतरराष्ट्रीय मंच पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि अपनी आर्थिक संभावनाओं के कारण वे मध्यस्थ की भूमिका में आ रहे हैं। अब ये चाहे अमेरिका और रूस के बीच हो या अमेरिका और चीन के बीच। विश्व व्यवस्था में बदलाव के लक्षण दिख रहे हैं।
 
आम लोगों में बढ़ी दिलचस्पी
 
देशभर में करीब 200 आयोजनों के साथ नरेन्द्र मोदी की सरकार ने जी20 को पूरे भारत में दिलचस्पी के केंद्र में ला दिया। आमतौर पर शिखर सम्मेलनों का इस तरह लाइव प्रसारण नहीं होता है। नई दिल्ली सम्मेलन के बाद ये सम्मेलन सिर्फ नेताओं का सम्मेलन नहीं रह गया, यह आम लोगों का सम्मेलन हो गया है। भविष्य में विश्व के अरबों लोगों की नजर इस बात पर होगी कि सम्मेलनों में कौन नेता क्या बोल रहा है, कैसे फैसले ले रहा है?
 
भारत ने सम्मेलन से सिलसिले में हुए आयोजनों का आर्थिक फायदा भी उठाया। देश के 200 शहरों में बैठकों के आयोजन का मतलब था, दुनियाभर के प्रतिनिधियों को उन शहरों तक ले जाना और उसके लिए न सिर्फ आयोजन और सुरक्षा की बल्कि रहने-सहने की व्यवस्था करना। निश्चित तौर पर इससे पर्यटन की एक संरचना बनी जिसका फायदा भारत को मिलेगा। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती होगी घोषणा पत्र में किए गए वादों को कागज के पन्नों से निकालकर देश में भी लागू करना।(Photo Courtesy: Deutsche Vale)

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