भारत में हर 4 मिनट पर एक व्यक्ति किसी न किसी वजह से आत्महत्या कर लेता है यानी हर घंटे 15 लोग अपने जीवन का अंत कर रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों से यह बात सामने आई है। ये आंकड़े वर्ष 2016 के हैं। हालांकि वर्ष 2015 के मुकाबले वर्ष 2016 में ऐसे मामलों में 2 फीसदी की मामूली गिरावट आई है। बावजूद इसके यह आंकड़ा बेहद गंभीर और चिंताजनक है। आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की तादाद ज्यादा (68 फीसदी) है।
मनोवैज्ञानिकों ने देश में बढ़ती आत्महत्याओं पर गहरी चिंता जताते हुए इस पर अंकुश लगाने की दिशा में पहल करने की जरूरत पर जोर दिया है। इससे पहले 'विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस' के मौके पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी एक रिपोर्ट में भी कहा गया था कि दक्षिण-एशिया क्षेत्र में भारत में आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा है।
बढ़ती आत्महत्याएं
भारत में वर्ष 2010 में आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे। उसके बाद इसमें मामूली गिरावट दर्ज की गई है लेकिन अब भी यह बहुत ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि भारत में आत्महत्या की दर 16.5 प्रति लाख है। इसके बाद श्रीलंका (14.6) और थाईलैंड (14.4) का स्थान है।
रिपोर्ट में कहा गया था कि पूरी दुनिया में हर साल लगभग 8 लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं। यह आंकड़ा मलेरिया, स्तन कैंसर और युद्ध या नरसंहार के मुकाबले ज्यादा है। 15 से 29 साल की उम्र के युवकों में यह मौत की दूसरी सबसे बड़ी वजह है। वर्ष 2016 में इस आयु वर्ग के 2 लाख लोगों ने आत्महत्या कर ली थी। अब एनसीआरबी के ताजा आंकड़े भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस रिपोर्ट की पुष्टि करते हैं।
संगठन ने कहा है कि आत्महत्या को रोकने के लिए इसके तरीकों तक आसान पहुंच पर अंकुश लगाने के साथ ही आम लोगों में जागरूकता फैलाने पर जोर देना होगा ताकि छोटी-छोटी बातों पर आत्महत्या करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सके।
आत्महत्या की वजह
आखिर आत्महत्या के मामलों के बढ़ने की वजह क्या है? एनसीआरबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि इसकी कई वजहें हैं। इनमें 29.2 फीसदी मामले शादी के अलावा दूसरी पारिवारिक समस्याओं के चलते होते हैं और 17.1 फीसदी लोग बीमारियों की वजह से हताश होकर आत्महत्या कर लेते हैं। इसी तरह शादी संबंधी विवाद के चलते 5.3 फीसदी लोग आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं। नशे या शराब के आदी होने की वजह से 4 फीसदी लोग आत्महत्या कर लेते हैं।
एनसीआरबी ने विभिन्न राज्यों से मिले आंकड़ों के आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार की है। मनोचिकित्सकों का कहना है कि दूरदराज के इलाकों में आत्महत्या की खबरें सामने नहीं आ पातीं, ऐसे में यह तादाद और ज्यादा होने का अंदेशा है।
दिल्ली स्थिति सर गंगाराम अस्पताल के मनोचिकित्सा विभाग के प्रमुख डॉ. जेएम वधावन कहते हैं कि जीवन में बढ़ता तनाव अवसाद की प्रमुख वजह है। कामकाज का समय बढ़ना, संयुक्त परिवारों का टूटना और इससे सपोर्ट सिस्टम खत्म होना और दफ्तर पहुंचने के लिए लंबी यात्राएं करना जैसी वजहें अवसाद को जन्म देती हैं।
एक और मनोचिकित्सक डॉ. सुनील गांगुली कहते हैं कि आम धारणा के विपरीत आत्महत्या का फैसला कोई भी एक क्षण में नहीं लेता। डांट-डपट, लगातार मानसिक उत्पीड़न, वित्तीय तंगी, शारीरिक शोषण और अवसाद जैसी घटनाएं मिलकर किसी व्यक्ति को आत्महत्या के निष्कर्ष तक पहुंचाती हैं। ऐसे लोगों को जब लगता है कि मुसीबतों से छुटकारे के तमाम रास्ते बंद हो चुके हैं तो वह आत्महत्या का रास्ता चुन लेता है।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आत्महत्या का प्रयास दरअसल मदद के लिए पुकारने की तरह है। हालांकि ऐसे ज्यादातर लोगों को इस मामले में कहीं से कोई मदद नहीं मिल पाती। डॉ. वधावन कहते हैं कि मौजूदा समस्या को गंभीर बनाने में समाजिक मानसिकता की भी अहम भूमिका है।
अवसाद को अब भी लोग मूड में उतार-चढ़ाव के तौर पर देखते हैं। इसके अलावा लोग अवसाद से निपटने के लिए मनोचिकित्सक के पास जाने से डरते हैं। उनको मन में डर रहता है कि कहीं ऐसा करने पर कहीं लोग पागल न घोषित कर दें। इस मानसिकता में बदलाव जरूरी है।
विशेषज्ञों का कहना है कि आत्महत्या की घटनाओं पर अंकुश लगाने में परिवार और समाज की भूमिका बेहद अहम है। समाज की मानसिकता में बदलाव सबसे जरूरी है। किसी व्यक्ति में अवसाद के लक्षण नजर आते ही उसे मदद और समर्थन मिलने की स्थिति में आत्महत्याओं पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है।