मुसलमानों को कैंप में रख कर ताकतवर बनेगा चीन?

Webdunia
गुरुवार, 27 सितम्बर 2018 (10:58 IST)
चीन में लगभग दस लाख मुसलमानों को खास कैंपों में रखकर 'वफादारी की घुट्टी' पिलाई जा रही है। लेकिन इन कैंपों में जो कुछ हो रहा है, उससे फिर चीन दुनिया के निशाने पर आ गया है।
 
 
सबसे बड़ी आबादी वाला देश चीन दुनिया की महाशक्ति बनने का सपना देख रहा है। दुनिया भर में अपनी छवि को चमकाने के लिए उसने एक बड़ा मीडिया तंत्र खड़ा किया है, जिस पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में दबदबा कायम करने के लिए वह दुनिया भर में अरबों डॉलर का निवेश कर रहा है। पूरी दुनिया को रेल, सड़क और समुद्री मार्ग से जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना पर काम कर रहा है। 
 
 
लेकिन कुछ चीजों को बदलना मुश्किल होता है। जब तक चीन में एक पार्टी वाली शासन व्यवस्था रहेगी, तब तक मानवाधिकारों के मुद्दे पर चीन के रुख में बदलाव की उम्मीद भी बेमानी है। यह बात सोचकर ही अजीब लगता है कि 21वीं सदी में दस लाख लोगों को कैंपों में इसलिए कैद किया गया है ताकि उन्हें 'वफादारी का पाठ' पढाया जा सके। लेकिन चीनी नेताओं को कुछ अजीब नहीं लगता। वहां की व्यवस्था में विरोध की आवाज बुलंद करना एक अपवाद है जबकि उसे दबाना एक सामान्य बात है।
 
 
शिनचियांग प्रांत बीजिंग में बैठी चीन की सरकार के लिए लंबे समय से सिरदर्द रहा है। इस इलाके में बड़ी संख्या में तुर्क मूल की मुस्लिम आबादी रहती है जिन्हें उइगुर से नाम से जाना जाता है। इन लोगों की अपनी अलग भाषा और अलग संस्कृति है, और शायद इसी की कीमत ये लोग इतने सालों से चुका रहे हैं। चीन की सरकार ने उनकी उनकी आवाजों, शिकायतों और आपत्तियों का हल तलाशने और उन्हें साथ लेकर चलने की बजाय उन्हें दबाने का रास्ता चुना। देश के बाकी हिस्सों से हान चीनियों को शिनचियांग में लाकर बसाया गया, ताकि उइगुर लोगों को अल्पसंख्यक बनाया जा सके।
 
 
इन में से कुछ लोगों ने हिंसा का रास्ता चुन लिया। चरमपंथी गुट बना कर उन्होंने हाल के सालों में शिनचियांग में चीनी अधिकारियों और लोगों को अपने हमलों का निशाना बनाया। इसलिए आज चीन उन्हें आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताता है। जिन कैंपों को लेकर दुनिया भर में चीन की आलोचना हो रही है, उन्हें बीजिंग की सरकार 'भटके युवाओं को रास्ते पर लाने' का उपाय बता रही है। कैंपों में शोषण की रिपोर्टों को खारिज करते हुए चीनी अधिकारी कहते हैं कि वहां रहने वाले लोगों को पेशेवर कामों की ट्रेनिंग दी जा रही है ताकि वे उग्रवाद की तरफ न जाएं।
 
 
दूसरी तरफ विदेशों में रह रहे उइगुर लोगों के संगठन का कहना है कि चीन की सरकार इन कैंपों के जरिए जानबूझ कर उनकी सांस्कृतिक पहचान पर चोट कर रही है। वर्ल्ड उइगुर कांग्रेस के मुताबिक उइगुर लोगों की भाषा, संस्कृति और धर्म पर हमला किया जा रहा है। इस संगठन के प्रमुख डोलकुन इसा कहते हैं, "दस लाख से ज्यादा लोगों को कैंपों में कैद किया जाना किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता और इसलिए संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को इसके खिलाफ कदम उठाना चाहिए।"
 
 
समाचार एजेंसी एपी ने इस साल मई में इन कैंपों पर एक खोजी रिपोर्ट की। इसके मुताबिक वहां कड़े अनुशासन में रहने वाले लोगों को अपने धार्मिक विचार त्याग कर चीनी नीति और तौर तरीकों का पाठ पढाया जा रहा है। ये लोग सूरज उगने से पहले ही जग जाते हैं, चीनी राष्ट्रगान गाते हैं और सुबह साढ़े सात बजे चीनी ध्वज फहराते हैं। वे ऐसे गीते गाते हैं जिनमें कम्युनिस्ट पार्टी की तारीफ की गई हो। इसके अलावा उन्हें चीनी भाषा और इतिहास पढ़ाया जाता है।
 
 
रिपोर्ट कहती है कि जब इन लोगों को सब्जियों का सूप और डबल रोटी खाने को दी जाती थी तो उससे पहले उन्हें "धन्यवाद पार्टी! धन्यवाद मातृभूमि! धन्यवाद राष्ट्रपति शी!" ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि 2017 से लोगों को जबरदस्ती इन कैंपों में रखने का सिलसिला शुरू हुआ।
 
 
इन कैंपों को बंद करने के लिए चीन पर सिर्फ अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा जैसे पश्चिमी देशों का दबाव नहीं है, बल्कि उसका करीबी पड़ोसी पाकिस्तान भी इस मुद्दे पर आवाज उठा रहा है। पाकिस्तान इस हालत में नहीं है कि खुल कर वह चीन का विरोध कर सके। हालांकि दबे दबे लफ्जों में ही सही, उसने भी चीन की सरकार से उइगुर लोगों के प्रति नरमी बरतने को कहा है।
 
 
चीन की तरफ से मिलने वाला अरबों डॉलर का निवेश पाकिस्तान की जुबान पर ताले डालता है। वरना क्या वजह है कि कश्मीरी मुसलमानों के साथ हो रही कथित ज्यादतियों को जोर शोर से उठाने वाला पाकिस्तान चीन में मुसलमानों के शोषण पर सालों से चुप है। ताजा बयान शायद इसलिए आया कि अब वहां इमरान खान की सरकार है, जो खासे मुंहफट हैं।
 
 
बहरहाल सवाल यह है कि क्या चीन इन अपीलों पर अमल करेगा, और अगर भारी दबाव में उसे इन कैंपों को बंद करना भी पड़ा तो क्या उइगुर लोगों के प्रति उसका रवैया बदेलगा। शायद नहीं। और बात सिर्फ उइगुर लोगों की नहीं है। बात मानवाधिकारों के सम्मान की है। बात सबको साथ लेकर चलने की है। बात उन आवाजों पर भी ध्यान देने की है, जो आपके कानों को अच्छी नहीं लगतीं। सिर्फ शिनचियांग ही नहीं, बल्कि तिब्बत और हांगकांग में भी मानवाधिकारों का सम्मान करना होगा।
 
 
शी जिनपिंग जैसे सख्त शासक के चीन में इसकी गुंजाइश ना के बराबर है। उनका चीन सहमति और स्वीकार्यता की बजाय ताकत पर विश्वास करता है। कम्युनिस्ट पार्टी के डंडे से चलने वाले चीन में भले ही यह मुमकिन हो, लेकिन पूरी दुनिया ऐसे नहीं चल सकती, जिसकी महाशक्ति बनने का सपना चीन देखता है। मानवाधिकार का सम्मान किए बगैर महाशक्ति तो क्या एक आधुनिक संपूर्ण राष्ट्र भी नहीं बन सकता।
 
 

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