क्या अधूरा रह जाएगा मंगल पर इंसानी बस्ती बसाने का सपना...

DW
रविवार, 6 फ़रवरी 2022 (08:09 IST)
एलन मस्क मंगल ग्रह पर इंसानी बस्ती बसाना चाहते हैं, लेकिन उनका सपना अधूरा रह सकता है। उन्होंने चिंता जताई है कि जब धरती की आबादी ही कम हो जाएगी, तो मंगल पर रहने के लिए किसे भेजा जाएगा।
 
एलन मस्क चाहते हैं कि धरती के अलावा दूसरे ग्रह पर भी इंसानों की बस्ती हो। दो दशक पहले स्थापित उनकी कंपनी स्पेसएक्स का मुख्य लक्ष्य मंगल ग्रह पर इंसानों की बस्ती बसाना है। इसके पीछे उनका तर्क था कि अगर जलवायु परिवर्तन, अधिक जनसंख्या, तीसरे विश्व युद्ध या किसी और वजह से धरती से इंसानों का अस्तित्व खत्म होने का खतरा उत्पन्न हो जाए, तो हमें प्लान बी के लिए तैयार रहना चाहिए।
 
हालांकि, निर्णायक समिति अभी इस बात पर कोई फैसला नहीं ले पाई है कि आखिर ऐसा क्या होगा जिसकी वजह से हमारी पृथ्वी वीरान हो जाएगी। इस बीच मस्क ने जनवरी महीने में ट्वीट कर एक नई चिंता जाहिर की है। वह है, ‘जनसंख्या में भारी गिरावट।'
 
मस्क की इस चिंता में कुछ सच्चाई हो सकती है। 2020 में द लांसेट जर्नल में इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) के शोधकर्ताओं की ओर से एक अध्ययन प्रकाशित किया गया था। इसमें कहा गया है कि 2050 के बाद दुनिया की आबादी कम हो सकती है।
 
मंगल पर पहली इंसानी बस्ती बसाने के काम को धक्का
इसका मतलब है कि मंगल ग्रह पर इंसानी बस्ती बसाने के लिए मस्क की योजना के तहत जितने लोगों की जरूरत हो सकती है, शायद उतने लोग उस समय तक धरती पर न हों। इस बात को मस्क ने खुद उस ट्वीट में स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है, "अगर धरती पर पर्याप्त लोग नहीं होंगे, तो निश्चित रूप से मंगल पर इंसानी बस्ती बसाने के लिए पर्याप्त लोग नहीं मिलेंगे।"
 
आईएचएमई ने अनुमान लगाया है कि 2064 तक दुनिया की जनसंख्या अपने सबसे उच्चतम स्तर तक पहुंच जाएगी। उस समय पूरी दुनिया की आबादी करीब 9 अरब 73 करोड़ होगी। इसके बाद, सदी के अंत तक यह आबादी करीब एक अरब कम हो जाएगी।
 
यह निष्कर्ष संयुक्त राष्ट्र के पिछले अनुमान से बिल्कुल अलग है। संयुक्त राष्ट्र ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2100 तक दुनिया की आबादी करीब 11 अरब हो जाएगी। हालांकि, मस्क ने अपने ट्विटर पोस्ट में संयुक्त राष्ट्र के इस अनुमान को ‘बकवास' बताया है।
 
आबादी कम होने की वजह
इन अनुमानों में महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जनसंख्या में गिरावट के लिए मुख्य रूप से घटती जन्म दर जिम्मेदार होती है। शोधकर्ताओं ने बताया कि बेहतर शिक्षा और गर्भ निरोधकों तक आसान पहुंच की वजह से जन्म दर में बदलाव देखने को मिल रहा है। महिलाएं कम बच्चे पैदा कर रही हैं।
 
सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है? डेनमार्क का मामला इस सवाल का बेहतर जवाब हो सकता है। नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च के 2018 के एक अध्ययन के अनुसार, बच्चे के जन्म के बाद महिलाओं की कमाई में भारी गिरावट हुई जबकि पुरुषों की आय पहले की तरह ही बनी रही।
 
कुछ देशों में इन चुनौतियों से निपटने के लिए कई कदम उठाए गए हैं। इनमें महिलाओं को वेतन के साथ मातृत्व अवकाश देना, रोजगार सुरक्षा, बच्चों की देखभाल और आर्थिक प्रोत्साहन जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। अध्ययन के लेखकों ने स्वीडन को इस मामले में एक उदाहरण की तरह पेश किया है। वहां 1990 के दशक में जन्म दर 1।5 फीसदी थी, जो 2019 में बढ़कर 1।9 फीसदी हो गई।
 
शोधकर्ता इस बात से भी चिंतित थे कि महिलाओं की शिक्षा और गर्भ निरोधकों तक आसान पहुंच की वजह से जन्म दर में कमी होने पर, उनकी स्वतंत्रता और अधिकार खतरे में पड़ सकते हैं। मां बनने के बाद आर्थिक रूप से सुरक्षा उपलब्ध कराने की जगह कुछ देश इससे विपरीत काम कर सकते हैं। वे जनसंख्या में कमी रोकने के लिए प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच सीमित कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने रोमानिया और सोवियत संघ जैसे देशों का उदाहरण भी दिया, जहां 60 के दशक में जन्म दर बढ़ाने के लिए प्रतिबंधों और पाबंदियों का इस्तेमाल किया गया था।
 
अच्छे और बुरे नतीजे
शोधकर्ताओं का कहना है कि हो सकता है कि मस्क कम आबादी वाली दुनिया को पसंद न करते हों, लेकिन जरूरी नहीं कि यह एक बुरी चीज हो। उन्होंने कहा कि इससे पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि जब लोग कम होंगे तब संसाधनों का इस्तेमाल भी कम होगा। साथ ही, कार्बन का उत्सर्जन भी कम होगा। हालांकि, जनसंख्या में कमी से धरती को लाभ हो सकता है, लेकिन यह जलवायु परिवर्तन को कम करने का कोई समाधान नहीं है।
 
जापान, स्पेन और यूक्रेन जैसे देशों की आबादी इस सदी के अंत तक आधी या उससे कम हो सकती है। 2015 में एक बच्चे की नीति समाप्त होने के बावजूद, चीन की आबादी 1.4 अरब से कम होकर 70 करोड़ तक पहुंच सकती है। हालांकि, सभी देशों में आबादी में गिरावट देखने को नहीं मिलेगी। अनुमान से पता चलता है कि उप-सहारा अफ्रीका, उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व इलाके की आबादी 2017 की तुलना में 2100 में ज्यादा हो सकती है।
 
वहीं, उच्च आय वाले पश्चिमी यूरोप के देश 2040 से पहले जनसंख्या वृद्धि के मामले में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएंगे। जर्मनी की आबादी 2035 तक 8.5 करोड़ हो जाएगी और फिर 2100 तक घटकर 6 करोड़ तक पहुंच जाएगी। भारत की आबादी भी 2048 तक अपने उच्चतम स्तर तक पहुंच जाएगी। यह करीब एक अरब 60 करोड़ तक पहुंच सकती है और फिर 2100 तक कम होकर 1.09 अरब हो सकती है। 
 
कुछ देशों में कम होती कामकाजी आबादी का भी अनुमान लगाया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इसके आर्थिक दुष्परिणाम सामने आएंगे। जैसे, जीडीपी में वृद्धि की दर कम हो सकती है। सेवानिवृत्त होने वालों की संख्या बढ़ने और कामकाजी आबादी कम होने से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर असर पड़ता है। पेंशन से जुड़े कार्यक्रमों के लिए आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
 
अध्ययन के लेखकों का कहना है कि इस स्थिति में अप्रवासन मददगार साबित हो सकते हैं। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे जो देश प्रवासन की मदद से अपनी कामकाजी आबादी को बनाए रखने में सक्षम हैं वे समृद्ध हो सकते हैं।
 
शोधकर्ताओं ने इस तरह के अनुमान मौजूदा जनसंख्या के रूझान के आधार पर लगाए हैं। हो सकता है कि ये अनुमान पूरी तरह सच साबित न हों, लेकिन भविष्य की स्थितियों को लेकर कुछ इशारे तो कर ही सकते हैं।

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